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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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अन्वयार्थ - ( जई ) यदि (चउगइगमणु वीहउ ) चारों गतियों के भ्रमण से भयभीत ( तउ ) तो ( परभाव चएवि ) परभावों को छोड़ दे ( णिम्मलउ अप्पा झायहि ) निर्मल आत्मा का ध्यान कर (जिम ) जिससे (सिवसुक्ख लहेवि ) मोक्ष सुख को तू पा सके।
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अब, उसके सामने गुलांट खाता है, देखो! मिथ्यादर्शन से मोहित जीव चौरासी में भटकता है। समझ में आया ? अन्तिम ग्रैवेयक, नौवें ग्रैवेयक (गया) 'मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रैवेयक उपजायो, पे निज आत्मज्ञान बिना सुख लेश न पायो' नौवें ग्रैवेयक में, दिगम्बर साधु पंच महाव्रत, अट्ठाईस मूलगुण पालन करे, वह मूढ़ जीव है । अट्ठाईस मूलगुण वह राग है, उसमें हित मानता है । मिथ्या श्रद्धा से मोहित प्राणी मूढ़ है, उसे आत्मा ज्ञान और आनन्द का पता नहीं है। ऐसे वह पालने से मरकर चार गति में भटकनेवाला है - ऐसा कहते हैं । समझ में आया ? उसके सामने अब बात है, लो !
दुःख का कारण मिथ्यादर्शन कहा, उसमें जरा भी सुख नहीं है । उसमें मिथ्या श्रद्धा में कहाँ से (होगा) ? लोग मिथ्यादर्शन की व्याख्या ही संक्षिप्त करते हैं। समझ में आया ? हम देव-शास्त्र-गुरु को मानते हैं, कुदेव-कुगुरु को नहीं मानते, हम पंच महाव्रत पालन करते हैं... परन्तु यह पंच महाव्रत राग है, वह मेरा है उन्हें पालन करूँ और (वे) रखने योग्य है, उस भाव को ही मिथ्यादर्शन कहा है। सुन न ! उस जीव को मिथ्यादृष्टि कहा है, वह अज्ञानी है । भले दिगम्बर साधु त्यागी होकर बैठा हो परन्तु उसके पंच महाव्रत के..... है तो कहाँ उसके पास ? परन्तु ऐसा कोई दया, दान, राग की मन्दता का भाव मुझे हितकर है, मुझे लाभदायक है, वह मिथ्यादर्शन से मोहित है । जिसे मिथ्यादर्शन का जहर चढ़ा है। समझ में आया? उसे जरा भी आत्मा के अमृत का स्वाद नहीं होता ।
मोक्षसुख का कारण : आत्मध्यान। देखो यह कहा, व्यवहार- भ्यवहार नहीं - ऐसा कहते हैं देखो !
जइ वीहउ चउगइगमणु तउ परभाव चएवि ।
अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिवसुक्ख लहेवि ॥ ५ ॥