________________
योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
३०५
परमानन्द निज परमात्मा । उसे देखने के लिए यह शरीर ही तीर्थ और मन्दिर है । ऐसा व्यवहार है, शुभभाव है ।
मुमुक्षु - तब तो फिर उदासीन और प्रेरक में कोई फर्क रहता ही नहीं ।
उत्तर – यहाँ सब उदासीन ही है; प्रेरक-प्रेरक कोई है ही नहीं । प्रेरक तो उसकी गतिवाला हो या इच्छावाला हो तो इस अपेक्षा से प्रेरक कहलाता है। दूसरे के कार्य के लिए किसी प्रेरक में अन्तर है - ऐसा है नहीं । हमारे पण्डितजी तो कुछ बोले नहीं, यह बताया तो भी, सुन लिया। यह दो होकर एक डाला इन्होंने उदासीन - प्रेरक । फिर उदासीन -प्रेरक क्या ? कुछ कराता है, उससे होता है, शास्त्र के वाक्य से कुछ ज्ञान होता है, यहाँ से यहाँ (ज्ञान) होता है ? धूल में भी नहीं होता। सुन न ! यह तो परसम्बन्धी का जो ज्ञान होता है, वह भी तुझसे होता है, उसमें निमित्त कहलाता है । उसमें स्वसम्बन्धी का ज्ञान, देह सम्बन्धी होता ही नहीं। शास्त्र के वाक्य, वे निमित्तरूप हों या मन्दिर आदि निमित्तरूप हों, वह तो परसम्बन्धी के ज्ञान में स्मरण में निमित्तरूप है; उपादान तो वहाँ अपना है। समझ में आया ? और अपने स्मरण के लिए उस निमित्त के ऊपर लक्ष्य करे, तब स्मरण होता है अपना ? शास्त्र वाक्य हो तो भी वह वाक्य ऐसा है - ऐसा बतलाता है, वह तो परसम्बन्धी का ज्ञान, वह अभी परलक्ष्यी ज्ञान है, उसमें भी उपादान तो स्वयं का ही है; वाक्य (तो) निमित्तमात्र है ।
भगवान ऐसे थे, मन्दिर में जाकर (देखे कि) भगवान ऐसे थे, उनके स्मरण में स्मरण तो अपना उपादान है, उसमें वे निमित्त हैं । इस उपादान के स्मरण में वह आत्मा आता है ? समझ में आया ? यहाँ पर इतनी बात सिद्ध करनी है और फिर दूसरे श्लोक में दूसरे प्रकार से सिद्ध करनी है।
भगवान आत्मा..... देखो! न मन्दिर में, न तीर्थक्षेत्र में, न गुफा में, न पर्वत पर, न नदी के तट पर ..... कहीं यह आत्मा नहीं है । है आत्मा कहीं ? तो जहाँ नहीं, उसे परमार्थ मन्दिर और तीर्थ कैसे कहा जाएगा ? है तो इस शरीर में है । इसे मन्दिर और इसे तीर्थ कहते हैं कि जो अन्दर में देखने से आत्मा का ज्ञान होता है। समझ में आया ? अभी तक जिसने परमात्मा को देखा है, उसने अपने अन्दर ही देखा है । लो ! इस ओर