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गाथा - ३२
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पाप से नरक में निवास होता है, नरक में जाता है - यह संसार है; दोनों संसार है। पाप से नरक में और पुण्य से स्वर्ग में (जाए) दोनों संसार है, उनमें कहीं आत्मा नहीं आया; उनमें कहीं मोक्ष नहीं आया । समझ में आया ? यह सब संसार दुःखरूप ही है संसार, फिर सुखरूप कैसा ? लोगों को व्यवहार से ऐसा लगता है कि यह पुण्य किया (तो) स्वर्ग मिला, यह सेठपना मिला, पैसा मिला। ये दोनों है तो संसार; दोनों भावों से मुक्ति नहीं है। ऐसी स्पष्ट बात कर दी है। क्रम-क्रम से लेते हुए (कह दिया है) । संसार मीठा है ? है ? संसार अर्थात् जहर । भगवान आत्मा और मुक्ति अर्थात् अमृत | इसके लिये यहाँ स्पष्टीकरण किया है।
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छंडिवि अप्पा मुणइ देखो! शुभ-अशुभभाव छोड़कर, रुचि छोड़कर, आश्रय छोड़कर अप्पा मुणइ आत्मा का अनुभव करे। आत्मा आनन्द ज्ञानस्वरूप का अनुभव करे, उसके सन्मुख होकर, उसका आश्रय लेकर उसका अनुभव करो तो लब्भइ सिववासु लो! नरक वासु था, निवास। इसमें शिववास ( कहा) । मोक्ष-पर्याय को पाता है, निर्मल अवस्था को पाता है । कहो, लब्भइ सिववासु शिवमहल में वास आता है - ऐसा कहा है। शिवरूपी महल (अर्थात्) आत्मा की मुक्तदशा, परमानन्दरूपी दशा । इन पुण्य-पाप को छोड़कर आत्मा का अनुभव करे तो मुक्ति पाता है। पुण्य के क्रियाकाण्ड से कहीं मुक्ति नहीं है, तथापि उसे बताया अवश्य कि निश्चय हो, वहाँ ऐसा व्यवहार होता है, साथ में बतलाने के लिये, परन्तु पहले व्यवहार होता है और फिर निश्चय होता है - ऐसा कुछ नहीं कहा है। समझ में आया ? अकेला व्यवहार तो निरर्थक कहा है, अकृतार्थ कहा है। उसमें कुछ गलत करते हैं ? संसार का कारण है । यहाँ सीधा ( व्यवहार को ) संसार बतलाया । अकेला व्यवहार दया, दान, व्रतादि के परिणाम ( वह संसार है) । (पहले) निमित्तरूप कहा था । निश्चय होवे तो । आत्मा का श्रद्धा स्वभाव आदि निर्मल पर्यायें प्रगट हुई तो उस व्यवहार को निमित्तरूप कहते हैं परन्तु अकेला व्यवहार तो संसार का ही कारण है। वह है तो अकेला बन्ध का कारण; निश्चय के साथ रहा हुआ व्यवहार, परन्तु उसे निमित्तरूप कहकर, आगे शुद्धि की वृद्धि हुई, छठवीं भूमिका में थी, इससे कहा कि यह दो होवे तो मुक्ति को पाता है - ऐसा कहा था। दो से होती है - ऐसा कहा जाता है न ?
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