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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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उस आत्मा के लिये, ऐसा। इसमें है, गुजराती किया है न? 'अप्पासंबोहण कयइ' अन्त में स्वयं अपने लिये भी कहते हैं, भाई! अन्त में ऐसा कहते हैं, पीछे है न! भाई! पीछे है यह मेरे लिये कहा है ऐसा लिखा है और यहाँ जरा ऐसा कहा है। ऐसे जो आत्माएँ हैं, चार गति से भय प्राप्त हैं और जिन्हें मोक्ष की अभिलाषा है। जिन्हें आनन्द प्राप्त है, दुनिया मेरे कुछ चाहिए नहीं। लाख चक्रवर्ती का राज, इन्द्र का हो तो उसके घर, वह विष्टा उसके घर रही; इस प्रकार जिसे अन्तर में आत्मा की छटपटाहट लगी है - ऐसे जीवों के लिये यह मेरा योगसार का उपदेश है। अन्यत्र क्षार के क्षेत्र में हम (बीज) बोते नहीं - ऐसा कहते हैं। जिसमें क्षार भरा हो, उस क्षेत्र में बोये तो बीज जल जाता है - ऐसा बीज हम व्यर्थ नहीं रखते हैं। आहा...हा...! समझ में आया?
आत्मा का स्वरूप समझने के प्रयोजन से... देखो, फिर विशिष्टता क्या? कि एक तो चार गति का त्रास जिसे वर्तता है और मोक्ष की अभिलाषा, उसे मुझे कहना है क्या? यह आत्मा का स्वरूप- एक बात. भाई! आहा...हा...! पण्य करेगा तो ऐसा करेगा. व्यवहार करेगा यह बात ही यहाँ नहीं है - ऐसा कहते हैं। आहा...हा...! आत्मा का सम्बोधन, आत्मा का स्वरूप समझाने के लिये, एक बात है। तेरा स्वरूप क्या है ? तेरे अन्दर जात क्या है? भाई ! तेरे स्वरूप में क्या पड़ा है ? और यह विकार-फिकार वह तेरी जाति नहीं है - ऐसे आत्मा के स्वरूप को समझाने के लिये एकाग्र मन से...मैं भी अभी मेरे एकाग्र मन से दोहे की रचना करूँगा। लो, समझ में आया। कहते हैं, समझाना है उसे आत्मा का स्वरूप, हाँ! एक बात कही। आहा...हा...! आत्मा का सम्बोधन, भाई ! तू यह है न! तेरा स्वरूप यह है न भाई! राग और विकार रहित तेरी वस्तु है न ! वह मुझे समझाना है क्योंकि इस चार गति से डरा है, मोक्ष का अभिलाषी है, उसे इतना स्वरूप समझाते हैं। उसके लिये मैं भी एकाग्र मन से दोहे की रचना करूँगा। मेरा भी बराबर एकाग्र मन से जो भाव उसमें चाहिए, वह आयेगा, मैं उसकी रचना करूँगा। ऐसा कहकर यह तीन दोहे माङ्गलिकरूप से कहे हैं।
(श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव)