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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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यह रत्नकरण्ड श्रावकाचार, समन्तभद्राचार्यदेव ने बनाया है। उसका श्लोक दिया है । है न इस ओर ? तीन लोक में और तीन काल में सम्यग्दर्शन के समान जीव का कोई भी हितकारी नहीं है..... कोई भी हितकारी नहीं अर्थात् चारित्र भी हितकारी नहीं है - ऐसा नहीं कहना है, हाँ ! यहाँ तो सम्यग्दर्शन के बिना दूसरे परिणाम कोई भी आत्मा को हितकारी नहीं हैं – ऐसा कहना है । फिर वापस उसे सिद्ध करते हैं।
मुमुक्षु - पंच महाव्रत के परिणाम तो होते हैं ।
उत्तर – चारित्र तो महा हितकारी है। यहाँ तो दूसरे परिणाम अनन्त बार किये.... दया, दान, व्रत, भक्ति, देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा, विकल्प, राग, पंच महाव्रत अनन्त बार कर चुका, उनकी कोई कीमत नहीं है। तीन लोक और तीन काल में (वे हितकारी नहीं हैं) । समन्तभद्राचार्य, रत्नकरण्ड श्रावकाचार.... जो व्यवहार आचरण का ग्रन्थ है, उसके ग्रन्थ में पहली भूमिका यह बाँधते हैं कि इसके बिना तेरे व्रत-फ्रत फिर हम कहेंगे, वह होते नहीं ।
मिथ्यादर्शन के समान जीव का कोई भी अहित करनेवाला नहीं है । लो! एक सामने बात रखी, देखो! ( अहित करनेवाला) कहा। भगवान आत्मा परिपूर्ण शुद्ध स्वभाव का आश्रय करके जो सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, उस सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त जगत में कोई हित की चीज नहीं है । कहो, समझ में आया ? और मिथ्यात्व के समान जीव का बुरा करनेवाला कोई नहीं है । शुभपरिणाम हो या अशुभपरिणाम हो, इतना बुरा नहीं करते; अशुभभाव - हिंसा, झूठ, चोरी, भोग, विषय-वासना के अशुभपरिणाम हैं, वे इतना बुरा नहीं करते परन्तु मिथ्या श्रद्धा उससे अनन्तगुना बुरा करनेवाली है । आहा... हा...!
भगवान आत्मा (ने) अपने स्वभाव का आश्रय लेकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति अनन्त काल में नहीं की। (जीव को) उसकी कोई कीमत ही नहीं, कहते हैं। तीन लोक - तीन काल में उसके ( सम्यग्दर्शन) जैसी कोई चीज नहीं है । मिथ्यात्व (अर्थात् ) भगवान आत्मा पूर्णानन्द का नाथ, उससे विरुद्ध एक शुभराग के कण से भी कल्याण होगा, यह देह की क्रिया मुझे सहायक होगी तो मेरा कल्याण होगा - ऐसी मिथ्यात्व की मान्यता जैसी जगत में कोई बुरी चीज नहीं है । कहो, रतनलालजी ! आहा... हा... ! पता नहीं परन्तु
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