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गाथा-१९
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गयी, तेरी दशा में राग का मैल है परन्तु वस्तु के स्वभाव में और भगवान के स्वभाव में कुछ अन्तर नहीं है। आहा...हा...! तो कहते हैं। शुद्धभाव से.... देखो! सुमणेण का अर्थ किया।शुद्धभाव से जिनेन्द्र का स्मरण करो.... भगवान आत्मा... जैसे सगे-सम्बन्धियों को याद
या हा तो याद करते हैं या नहीं? पुण्य किया हो तो याद करते हैं या नहीं? किसी के साथ बहुत स्नेह हुआ हो तो याद करते हैं या नहीं? इसी प्रकार भगवान आत्मा शुद्ध चिदानन्द की मूर्ति परमेश्वर केवलज्ञानी ने आत्मा देखा है, वैसा जिसे श्रद्धा-ज्ञान में जमा, ऐसे धर्मी जीव उसका बारम्बार स्मरण करते हैं। राग का नहीं, निमित्त का नहीं, संयोग का नहीं। समझ में आया?
शुद्धभाव से जिनेन्द्र का स्मरण करो.... जिनेन्द्र अर्थात् आत्मा, हाँ! आहा...हा...! यह गाथा में आता है। यह तो कहना यह चाहते हैं, वहाँ कहाँ पर की बात है ? जिनेन्द्र भगवान आत्मा, उसका स्वभाव वीतराग का इन्द्र / ईश्वर है। वीतरागी ईश्वर आत्मा.... कैसे ऊँचे? रंक होकर बैठा, एक बीड़ी बिना चले नहीं, उड़द की दाल अच्छी सीजी न हो तो चले नहीं, हाँ! एक प्रतिष्ठा में जरा थोड़ी कमी आवे तो हैं... ऊं...ऊँ...ऊं.... हो जाये। रतिभाई ! हैं। ऐसा हो जाये, निराश हो जाये। अरे... धक्का लग गया, इज्जत में धक्का (लग गया)। परन्तु अनादि से बड़ी इज्जत में धक्का लगा है।
भगवान सच्चिदानन्द प्रभु जिनवर समान आत्मा, यह उसे रागवाला मानना, महाकलंक लगा है तुझे । आहा...हा...! समझ में आया? देखो! इन्होंने लिखा है, हाँ! जिनेन्द्र के स्वभाव में और अपनी आत्मा के मूल स्वभाव में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। जिन चिन्तवो.... चिन्तवन करो। भगवान आत्मा वीतरागमूर्ति प्रभु आत्मा अन्दर है, उसका चिन्तवन कर न ! यह राग और दया-दान, व्रतादि के विकल्प हैं, वे तो छोड़ने योग्य हैं। उन्हें बारम्बार याद किसलिए करता है? आवे तो भी याद किसलिए करता है? – ऐसा कहते हैं। समझ में आया?
जिनेन्द्र प्रभु आत्मा... क्योंकि प्रत्येक गुण वीतरागस्वभाव के ईश्वरवाला गुण है। ऐसा जिनेन्द्र प्रभु आत्मा, साक्षात् वस्तुरूप है। उसकी दशा में प्रगटता करने के लिये ऐसे जिनेन्द्र भगवान का एकाग्र होकर ध्यान करना, वह प्रगट जिनेन्द्र होने का उपाय है। समझ