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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) १२३ हैं। इतनी बात ऐसी की है न? गुणस्थान, मार्गणास्थान का ज्ञान भी मोक्ष का कारण नहीं है। अब ऐसा मार्ग वह कहीं गृहस्थाश्रम में हो सकता है या नहीं या मुनि को अकेले को होता है? १८। गृहस्थ भी निर्वाणमार्ग पर चल सकता है। लो, इस गृहस्थाश्रम में भी यह मार्ग हो सकता है। समझ में आया? गृहस्थाश्रम में राजपाट में दिखे, इन्द्र के इन्द्रासन में जीव दिखाई दे, वह गृहस्थी भी निर्वाण मार्ग पर चल सकता है। आत्मा है न उसके पास, कहते हैं। भगवान आत्मा है न? भगवान आत्मा अपने पूर्ण स्वरूप से वस्तु तो अखण्ड पड़ी है। अखण्ड का आश्रय करनेवाला गृहस्थाश्रम में भी निर्वाण को प्राप्त करने योग्य हो जाता है। इतने-इतने व्यापार-धन्धे होते हैं न? वे उनके घर रहे... वे तो जानने योग्य है। समझ में आया? अन्तर भगवान आत्मा का आश्रय करके गृहस्थाश्रम के व्यापार-धन्धे में हेयाहेय का ज्ञान वर्ते तो वह भी निर्वाण को प्राप्त करने योग्य है । यह कहेंगे। (श्रोता – प्रमाण वचन गुरुदेव!) मुनिदशा को रोकनेवाला वस्त्र-ग्रहण का भाव मुनिदशा होने पर सहज ही निर्ग्रन्थ दिगम्बरदशा हो जाती है। मुनिदशा तीनों काल नग्न दिगम्बर ही होती है। यह कोई पक्ष या सम्प्रदाय नहीं है, परन्तु अनादि की सत्य वस्तुस्थिति है। शङ्का - वस्त्र तो परवस्तु है, वह कहाँ आत्मा को बाधक है ? अत: वस्त्र होने में क्या आपत्ति है? समाधान - यह बात सत्य है कि वस्त्र परवस्तु है; अत: वह आत्मा को बाधक नहीं है, परन्तु वस्त्र ग्रहण करने का भाव ही मुनिदशा को रोकनेवाला है। अन्तर में लीनता बढ़ जाने से मुनियों को ऐसी उदासीनता सहज हो जाती है कि उन्हें वस्त्र ग्रहण करने का विकल्प ही नहीं होता। - पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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