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________________ १२ गाथा-२ के लिये सिद्ध को याद किया है। समझ में आया? शरीर-फरीर अब नहीं, हम अशरीरी होनेवाले हैं; हम एक-दो भव में अशरीरी होंगे - ऐसी कौल-करार करके सिद्ध को नमस्कार करते हैं, आहा...हा... ! एक श्लोक हुआ। यह सिद्ध को नमस्कार किया है, हाँ! अरहन्त भगवान को नमस्कार घाइचउक्कहँ किउ विलउ अणंतचउक्कपदिछु। तहिं जिणइंदहँ पय णविवि अक्खमि कव्वु सुइठ्ठ॥२॥ चार घातिया क्षय करि, लहा अनन्त चतुष्ट। वन्दन कर जिन चरण को, कहूं काव्य सुइष्ट॥ अन्वयार्थ -(घईचउक्कहं विलउ किउ) जिसने चार घातिया कर्मों का क्षय किया है (अणंतचउक्कपदिठ) तथा अनन्तचतष्टय का लाभ किया है (तहिं जिणइंदहं पय) उस जिनेन्द्र के पदों को (णविवि) नमस्कार करके (सुइठुकव्वु) सुन्दर प्रिय काव्य को (अक्खमि) मैं कहता हूँ। अब, अरहन्त भगवान को नमस्कार। दूसरा श्लोक, अरहन्त भगवान को नमस्कार। घाइचउक्कहँ किउ विलउ अणंतचउक्कपदिछ। तहिं जिणइंदहँ पय णविवि अक्खमि कव्वु सुइठ्ठ॥२॥ जो अरहन्त भगवान... ओ...हो...! जिसने 'घाइचउक्कहँ विलउ किउ' जिसने चार घातिया कर्मों को... विलय अर्थात् क्षय किया है... सिद्ध भगवान के तो आठ कर्मों का क्षय है। अरहन्त भगवान विराजते हों, अभी महाविदेहक्षेत्र में विराजमान हैं। अरहन्त भगवान अभी भरत-ऐरावत में नहीं हैं। महाविदेहक्षेत्र में त्रिलोकनाथ वर्तमान में अरहन्त पद में श्री ‘सीमन्धर प्रभु' विराजते हैं। ऐसे बीस तीर्थङ्कर विराजते हैं
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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