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________________ १०४ गाथा-१५ उनके शब्द हैं, हाँ! कि सम्यग्दृष्टि का लाभ होता है, जब आत्मा को आत्मा का भान और सम्यग्दर्शन होता है, वह सर्व शुभ प्रवृत्तियों से अशुभ प्रवृत्तियों की तरह ही उदास होता है, वह न मुनि के व्रत पालना चाहता है न श्रावक के। वह विकल्प है न? पालना चाहता है वह। परन्तु आत्मबल की कमी से जब उपयोग अपने आत्मा में अधिक काल स्थिर नहीं रहता तब अशुभ से बचने के लिये वह शुभ कार्य करता है.... आता है; करता है – ऐसा कहा जाता है। देखो, पहले इन्होंने इनकार किया, हाँ! वह न मुनि के व्रत पालना चाहता है न श्रावक के। (वह विकल्प) तो राग है। ऐसा कितना ही ठीक लिखा है, फिर वापस निमित्त आवे तब जरा गुलांट खा जाते हैं। समझ में आया? यहाँ तो कहते हैं, असेस पुण्य के जितने भाव हों, उतने किये जायें, तथापि उससे भिन्न आत्मा भगवान का भान न करे तो उसका परिभ्रमण नहीं मिटता । चार गति में भटकना होता है परन्तु उसका अवतार कभी नहीं घटता। लो! पूरा हो गया। (श्रोता – प्रमाण वचन गुरुदेव!) वीतरागता के बिना मात्र बाह्य नग्नता ही मुनिपना नहीं आत्मा की दशा में सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक वीतरागभाव प्रगट हुए बिना, मात्र बाह्य निर्ग्रन्थता या पञ्च महाव्रत में मुनिदशा नहीं है। उसी प्रकार अन्तर में भाव निर्ग्रन्थता अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक वीतरागभाव प्रकटे और बाह्य में वस्त्रादिरहित निर्ग्रन्थता न हो - ऐसा कभी नहीं हो सकता। जैसे बादाम का ऊपर का छिलका निकल जाए और अन्दर का छिलका न निकला हो - ऐसा तो हो सकता है, परन्तु का अन्दर का छिलका निकल जाए और ऊपर का छिलका न निकले - ऐसा कभी नहीं हो सकता। बाह्य वस्त्रादि परिग्रह ऊपर के छिलके के समान हैं और राग-द्वेष अन्दर के छिलके के समान - पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी हैं।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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