________________ 24. श्री महावीर स्तवन जो निज दर्शन ज्ञान चरित अरु, वीर्य गुणों से हैं महावीर। अपनी अनन्त शक्तियों द्वारा, जो कहलाते हैं अतिवीर / / जिसके दिव्य ज्ञान दर्पण में, नित्य झलकते लोकालोक। दिव्यध्वनि की दिव्यज्योति से, शिवपथ पर करते आलोक / / जिन-सा निज को जानकर, जो ध्याते निजरूप। वे पाते अरिहन्त पद, भोगें सुख भरपूर / / श्री देव-शास्त्र-गुरु स्तवन जिनवर के दर्शन-पूजन से, पापों का पुंज प्रलय होता। श्रुत के वचनामृत सुनने से, विपरीत-विभाव विलय होता / / घन-रूप दिगम्बर दर्शन से, मन-रूप मयूर मुदित होता। निजनाथ निरंजन अनुभव से, समकित का सूर्य उदित होता / / जिनवाणी नित बोधनी, सुलभ रहै दिन-रैन / वीतरागता में निमित्त, वीतराग जिन-बैन / / निर्विकार निर्ग्रन्थ मुनि, यथा जिनेश्वर बिम्ब / बाहर की यह नग्नता, अन्तर का प्रतिबिम्ब / / निश-दिन निज का चिन्तवन, चर्चा निज की होय / चर्या में निज ही प्रमुख, चाह अन्य नहिं कोय / / (56) तीर्थंकर स्तवन देव का स्वरूप वीतराग-सर्वज्ञ प्रभु, जगतबन्धु जिननाम / चिदानन्द चैतन्यमय, शिवस्वरूप सुखधाम / / जो मैं वह परमातमा, जो जिन सो मम रूप। चिदानन्द चैतन्यमय, सत् शिव शुद्ध स्वरूप / / सत् स्वरूप चैतन्यघन, चिदानन्द सुखसिन्धु / अवगाहन जो जन करें, पर होंय भवसिन्धु / / जिन-सा निज को जानकर, जो ध्याते निज रूप। वे पाते अरहन्त पद, भोगें सुख भरपूर / / रचयिता पण्डित रतनचन्द भारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, एम.ए., बी.एड.