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________________ तीर्थंकर-स्तवन जो मैं वह परमातमा, जो जिन सो मम रूप। चिदानन्द चैतन्यमय, सत् शिव शुद्ध स्वरूप / / 1. श्री आदिनाथ स्तवन सकल' कर्म जिनने धो डाले, वे हैं आदिनाथ भगवान / लोकालोक झलकते जिसमें, ऐसा प्रभु का केवलज्ञान / / तीर्थंकर पद के धारक प्रभु! दिया जगत को तत्त्वज्ञान। दिव्यध्वनि द्वारा दर्शाया, प्रभुवर! तुमने वस्तु-विज्ञान / / 1. पाप-पुण्यरूप समस्त घाति-अघाति भावकर्म, द्रव्यकर्म एवं नोकर्म (43) 4. श्री अभिनन्दननाथ स्तवन "मैं हूँ स्वतंत्र स्वाधीन प्रभु, मेरा स्वभाव सुखनन्दन है। राग रंग अरु भेदभाव में, भटकन ही भव बन्धन है।।" यह तथ्य बताया है जिसने, वे तीर्थंकर अभिनन्दन हैं। त्रैलोक्य दर्शि अभिनन्दन को, मेरा शत-शत अभिवन्दन है।। 5. श्री सुमतिनाथ स्तवन सुमति जिन की साधना को, श्रेष्ठतम जो मानते। सुमतिजिन के जिनवचन', को ज्येष्ठतम जो जानते / / जिनके परम पुरुषार्थ में, निज आत्मा ही है प्रमुख / वे मुक्तिपथ के पथिक हैं, संसार से वे हैं विमुख / / 1. दिव्यध्वनि 2. सबसे बड़ा (45) 2. श्री अजितनाथ स्तवन अनन्तधर्ममय मूलवस्तु है, अनेकान्त सिद्धान्त महान / वाचक-वाच्य नियोग के कारण, स्याद्वाद से किया बखान / / आचार अहिंसामय अपनाकर, निर्भय किए मृत्यु भयवान / परिग्रह संग्रह पाप बताकर, अजित किया जग का कल्याण / / 3. श्री संभवनाथ स्तवन जिनका केवलज्ञान सर्वगत', लोकालोक प्रकाशक है। जिनका दर्शन भव्यजनों को, निज अनुभूति प्रकाशक है।। जिनकी दिव्यध्वनि भविजन को, स्व-पर भेद परिचायक है। ऐसे संभवनाथ जिनेश्वर, मोक्षमार्ग के नायक हैं।। 1. तीन लोक को जाननेवाला, 2. बतानेवाली 6. श्री पद्मप्रभ स्तवन महामोह के घने तिमिर को, सम्यक सूर्य भगाता है। मोह नींद में सोये जग को, दिनकर दिव्य जगाता है।। ज्ञान द्वीप जगमग ज्योति से, मुक्तिमार्ग मिल जाता है। पद्मप्रभ की शरणागत से, भवबन्धन कट जाता है।। 7. श्री सुपार्श्वनाथ स्तवन पत्थर सुपारस है वही, सोना करै जो लोह को। भगवन सुपारस है वही, भस्मक करै जो मोह को।। सर्वज्ञ समदर्शी सुपारस, शिवमग बताते जगत को। सप्तम सुपारस नाथ जिन, भगवन बनाते भगत को।। 1. अंधकार, 2. सूर्य, 3. वीतरागी, 4. मार्ग
SR No.009480
Book TitleTirthankar stavan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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