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प्रथम संस्करण (१५ फरवरी,२०१३) (बसंत पंचमी)
प्रकाशकीय परमपूज्य प्रातःस्मरणीय आचार्यश्री कुन्दकुन्दकृत महान ग्रंथाधिराज समयसार ग्रंथ अद्वितीय है। उसीतरह ग्रंथाधिराज समयसार में सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार भी सर्वोत्तम एवं अद्वितीय अधिकार है।
इस सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार में भी वस्तु की स्वतंत्रता को
बतानेवाला कलश क्रमांक २११ भी सर्वश्रेष्ठ है। इस कलश मूल्य:
पर आध्यात्मिकसत्पुरुषश्री कानजीस्वामी के प्रवचन भी
अद्वितीय ही हैं। श्री स्वामीजी के इन प्रवचनों को प्रकाशित चार रुपया
करते समय हमें अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
श्री स्वामीजी के श्रीमख से इस कलश का प्रवचन साक्षात भी उनके जीवन काल में सोनगढ़ में मुझे सुनने का सौभाग्य मिला है। अतः इस कलश/श्लोक की मुझे विशेष महिमा है।
योगानुयोग से श्री देवेन्द्रकुमार जैन बिजौलिया ने श्री कुन्दकुन्दकहान पारमार्थिक ट्रस्ट मुम्बई द्वारा जैन सिद्धान्त
प्रश्नोत्तरमाला में भी इस कलश के प्रवचनों को प्रकाशित किया टाइपसैटिंग
है। उसीप्रकार श्री केशवलालजी जैन सहारनपुरवालों ने भी त्रिमूर्ति कंप्यूटर्स | अनेक वर्षों पूर्व स्वतंत्रता की घोषणा नाम से प्रकाशित किया ए-४, बापूनगर | था; जो इन दिनों में अनुपलब्ध है। जयपुर
दोनों कृतियों को पढ़कर मुझे उन्हीं प्रवचनों को श्री टोडरमल दि. जैन महाविद्यालय के विद्यार्थी इन प्रवचनों को मुखोद्गन करेंगे तो अच्छा रहेगा। इस भावना से फिर से संपादित करके प्रकाशित करने का परिणाम हुआ। अतः इन प्रवचनों को ही 'स्वतंत्रता का उद्घोष' नाम से हम प्रकाशित कर रहे हैं।
मुमुक्षु समाज इसका स्वाध्याय करके आत्मानुभूति के
लिए उपयोगी बनायेगा ही, ऐसा हमें विश्वास है। कम्पोज का मुद्रक :
कार्य श्री कैलाशचन्द्र शर्मा ने किया है। श्री अखिलजी बंसल
ने हमेशा की भाँति प्रकाशन एवं आवरण आदि कार्य किया है। श्री प्रिन्टर्स
दातारों ने दान दिया है। अतः हम सबको हार्दिक धन्यवाद देते हैं। मालवीयनगर,
ह्र ब्र. यशपाल जैन, एम.ए. जयपुर
प्रकाशन मंत्री - पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट,
स्वतंत्रता का उद्घोष (चार बोलों से स्वतंत्रता की घोषणा करता हुआ विशेष प्रवचन)
समयसार-कलश २११ भगवान सर्वज्ञदेव का देखा हुआ वस्तु स्वभाव कैसा है, उसमें कर्ताकर्मपना किस प्रकार है, वह अनेक प्रकार से दृष्टान्त और युक्तिपूर्वक पुनः पुनः समझाते हुये, उस स्वभाव के निर्णय में मोक्षमार्ग किस प्रकार आता है, वह आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी ने इन प्रवचनों में बतलाया है। इनमें पुनः पुनः भेदज्ञान कराया है और वीतरागमार्ग के रहस्यभूत स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए कहा है कि - सर्वज्ञदेव द्वारा कहे हुए इस परम सत्य वीतराग-विज्ञान को जो समझेगा, उसका अपूर्व कल्याण होगा।
कर्ता-कर्म सम्बन्धी भेदज्ञान कराते हुए आचार्यश्री अमृतचन्द्र देव कलश काव्य में कहते हैं -
(नर्दटक छन्द) ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः। स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत्॥ न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया।
स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः॥२११॥ अर्थात्, वास्तव में परिणाम ही निश्चय से कर्म है और परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी का ही होता है; अन्य का नहीं (क्योंकि परिणाम अपने-अपने द्रव्य के आश्रित हैं; अन्य के परिणाम का अन्य आश्रय नहीं होता) और कर्म, कर्ता के बिना नहीं होता तथा वस्तु की एकरूप (कूटस्थ) स्थिति नहीं होती (क्योंकि वस्तु द्रव्य-पर्यायस्वरूप होने से सर्वथा नित्यत्व, बाधासहित है); इसलिए वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्म की कर्ता है।
“वस्तु स्वयं अपने परिणाम की कर्ता है और अन्य के साथ उसका