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व्यावहारिक जीवन में महावीर के आदर्श
हवा, पानी और भोजन आदि का जो महत्व हमारे जीवन में है; उससे कम धर्म, धार्मिक आस्था और धार्मिक आदर्शों का नहीं है; किन्तु हम हवा, पानी और भोजन आदि की जितनी आवश्यकता और उपयोगिता अनुभव करते हैं, उतनी धर्म और धार्मिक आदर्शों की नहीं।
समस्त प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं, तदर्थ निरन्तर प्रयत्न भी करते हैं; किन्तु वास्तविक सुख क्या है और सुखी होने का सच्चा मार्ग क्या है? यह न जानने के कारण उनके प्रयत्न सफल नहीं हो पाते।
हवा, पानी और भोजन आदि से भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकते हैं; किन्तु दुःख के कारण भौतिक जगत में नहीं, मानसिक जगत में विद्यमान हैं। जब तक अन्तर में मोह-राग-द्वेष की ज्वाला जलती रहेगी; तब तक पूर्ण सुखी होना संभव नहीं है। मोह-राग-द्वेष की ज्वाला शान्त हो - इसके लिए धर्म, धार्मिक आस्था और धार्मिक आदर्शों से अनुप्रेरित जीवन का होना अत्यन्त आवश्यक है।
धार्मिक आदर्श भी तो ऐसे होने चाहिए जिनका संबंध जीवन की वास्तविकताओं से हो। जो आदर्श व्यावहारिक जीवन में सफलतापूर्वक न उतर सकें, जिनका सफल प्रयोग दैनिक जीवन में संभव न हो, वे आदर्श कल्पनालोक के सुनहरे स्वप्न तो हो सकते हैं; किन्तु जीवन में उनकी उपयोगिता और उपादेयता संदिग्ध ही रहेगी। ___व्यावहारिक जीवन की कसौटी पर जब हम तीर्थंकर भगवान महावीर के आदर्शों को कसते हैं तो वे पूर्णतः खरे उतरते हैं। हम स्पष्ट अनुभव करते हैं कि उनके आदर्श कल्पनालोक की ऊँची उड़ानें नहीं, वे ठोस
व्यावहारिक जीवन में महावीर के आदर्श धरातल पर प्रयोगसिद्ध सिद्धांत हैं और उनका पालन व्यावहारिक जीवन में मात्र संभव ही नहीं; वे जीवन को सुखी, शान्त और समृद्ध बनाने के लिए पूर्ण सफल एवं सहज साधन हैं।
जीवन को पवित्र, सच्चरित्र एवं सुखी बनाने के लिए तीर्थंकर महावीर ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - ये पाँच महान् आदर्श लोक के सामने रखे।
व्यावहारिक जीवन में इनके सफल प्रयोग के लिए उन्होंने इन्हें साधु और सामान्यजनों (श्रावकों) को लक्ष्य में रखकर महाव्रत और अणुव्रत के रूप में प्रस्तुत किया। उक्त आदर्शों को पूर्ण रूप से जीवन में उतारने वाले साधु एवं शक्ति व योग्यतानुसार धारण करने वाले श्रावक कहलाते हैं। शक्ति और योग्यता के वैविध्य को लक्ष्य में रखकर श्रावकों की ग्यारह कक्षायें निश्चित की गई हैं, जिन्हें ग्यारह प्रतिमायें कहा जाता है।
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित महान् आदर्श - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर यह आक्षेप किया जाता है कि वे इतने सूक्ष्म एवं कठोर हैं कि उनका प्रयोग व्यावहारिक जीवन में संभव नहीं है।
यद्यपि यह सत्य है कि भगवान महावीर ने हिंसादि पापों के रंचमात्र भी सद्भाव को श्रेयस्कर नहीं माना है; तथापि उनको जीवन में उतारने के लिए अनेक स्तरों का प्रतिपादन किया है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को उन्हें जीवन में अपनाना संभव ही नहीं, वरन् प्रयोगसिद्ध है। ___ जहाँ साधु का जीवन पूर्ण अहिंसक एवं अपरिग्रही होता है; वहीं श्रावकों के जीवन में योग्यतानुसार सीमित परिग्रह का ग्रहण होता है तथा जहाँ गृहस्थ बिना प्रयोजन चींटी तक का वध नहीं करता है। वहीं देश, समाज, घर-बार, माँ-बहिन, धर्म और धर्मायतन की रक्षा के लिए तलवार उठाने में भी संकोच नहीं करता।
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