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मैं कौन हूँ ?
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शांत स्वभाव का प्रभाव वन्यपशुओं पर भी पड़ता था और वे स्वभावगत वैर-विरोध छोड़ साम्यभाव धारण करते थे । अहि-नकुल तथा गाय और शेर एक घाट पानी पीते थे। जहाँ वे ठहरते, वातावरण शान्तिमय हो
जाता था।
कभी कदाचित् भोजन का विकल्प उठता तो अनेक अटपटी प्रतिज्ञायें लेकर वे भोजन के लिए समीपस्थ नगर की ओर जाते । यदि कोई श्रावक उनकी प्रतिज्ञाओं के अनुरूप शुद्ध सात्त्विक आहार नवधा भक्तिपूर्वक देता तो अत्यन्त सावधानीपूर्वक खड़े-खड़े निरीह भाव से ग्रहण कर शीघ्र वन को वापिस चले जाते थे। मुनिराज महावीर का आहार एक बार अति विपन्नावस्था को प्राप्त सती चंदनबाला के हाथ से भी हुआ था ।
इसप्रकार अन्तर्बाह्य घोर तपश्चरण करते बारह वर्ष बीत गए । 42 वर्ष की अवस्था वैशाख शुक्ला दशमी के दिन आत्म-निमग्नता की दशा में उन्होंने अन्तर में विद्यमान सूक्ष्म राग का भी अभाव कर पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त कर ली। पूर्ण वीतरागता प्राप्त होते ही उन्हें परिपूर्ण ज्ञान की भी प्राप्ति हुई। मोह-राग-द्वेष रूपी शत्रुओं को पूर्णतया जीत लेने से वे सच्चे महावीर बने । पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ होने से वे भगवान कहलाए । उसी समय तीर्थंकर नामक महापुण्योदय से उन्हें तीर्थंकर पदवी प्राप्त हुई और वे तीर्थंकर भगवान महावीर के रूप में विश्रुत हुए ।
उसके बाद उनका तत्त्वोपदेश होने लगा । उनकी धर्मसभा को 'समवशरण' कहा जाता है। उसमें प्रत्येक प्राणी को जाने का अधिकार प्राप्त था। छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं था । जाति-पाँति को कोई स्थान प्राप्त न था । भगवान महावीर ने जातिगत श्रेष्ठता को कभी महत्त्व नहीं दिया । उनके अनुसार श्रेष्ठत्व का मापदण्ड मानव के आचार और विचार हैं।
आचार शुद्धि के लिए अहिंसा और विचार शुद्धि के लिए अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण आवश्यक हैं। जिसका आचार अहिंसक है,
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तीर्थंकर भगवान महावीर
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जिसने विचार में वस्तु-तत्त्व को स्पर्श किया है तथा जो अपने में उतर चुका है; चाहे वह चांडाल ही क्यों न हों, वह मानव ही नहीं, देव से भी बढ़कर है।
उनकी धर्मसभा में राजा-रंक, गरीब-अमीर, गोरे-काले सब मानव एक साथ बैठकर धर्म श्रवण करते थे । यहाँ तक कि उसमें मानवों-देवों के साथ-साथ पशुओं के बैठने की भी व्यवस्था थी और बहुत से पशुगण भी शान्तिपूर्वक धर्म श्रवण करते थे ।
सर्वप्राणी - समभाव जैसा महावीर की धर्मसभा में प्राप्त था; वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। महावीर के धर्मशासन में महिलाओं को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था । उनके द्वारा स्थापित चतुर्विध संग में मुनि संघ और श्रावक संघ के साथ-साथ आर्यिका संघ और श्राविका संघ भी थे।
अनेक विरोधी विद्वान भी उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अपनी परम्पराओं को त्याग उनके शिष्य बने । प्रमुख विरोधी विद्वान इन्द्रभूति गौतम तो उनके पट्ट शिष्यों में से हैं। वे ही उनके प्रथम गणधर बने जो कि गौतम स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हैं। सुधर्म स्वामी आदि और भी अनेक गणधर थे । श्रावक शिष्यों में मगध सम्राट महाराज श्रेणिक (बिम्बसार ) प्रमुख थे ।
लगातार तीस वर्ष तक सारे भारतवर्ष में उनका विहार होता रहा। उनका उपदेश जन-भाषा में होता था। उनके उपदेश को दिव्यध्वनि कहा जाता है। उन्होंने अपनी दिव्यवाणी में पूर्णरूप से आत्मा की स्वतंत्रता की घोषणा की।
उनका कहना था कि प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है, कोई किसी के आधीन नहीं है। पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने का मार्ग स्वावलंबन है। अपने बल पर ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। अनन्त सुख और स्वतंत्रता भीख में प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं हैं और न उसे दूसरों के बल पर ही प्राप्त किया जा सकता है।