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मैं कौन हूँ? कोणों से देखने पर वस्तु और बहुत कुछ है; किन्तु जिस कोण से यह बात बताई गई है, वह ठीक वैसी ही है; इसमें कोई शंका की गुंजाइश नहीं है।
अतः 'ही' और 'भी' एक दूसरे की पूरक हैं, विरोधी नहीं। 'ही' अपने विषय के बारे में सब शंकाओं का अभाव कर दृढ़ता प्रदान करती है और 'भी' अन्य पक्षों के बारे में मौन रह कर भी, उनकी सम्भावना की नहीं, निश्चित सत्ता की सूचक है। ____ 'भी' का अर्थ ऐसा करना कि जो कुछ कहा जा रहा है, उसके विरुद्ध भी सम्भावना है ह गलत है। सम्भावना अज्ञान की सचक है अर्थात यह प्रकट करती है कि मैं नहीं जानता और कुछ भी होगा। जबकि स्याद्वाद, संभावनावाद नहीं; निश्चयात्मक ज्ञान होने से प्रमाण है।
'भी' में से यह अर्थ नहीं निकलता कि इसके अतिरिक्त क्या है, मैं नहीं जानता; बल्कि यह निकलता है कि इस समय उसे कहा नहीं जा सकता अथवा उसके कहने की आवश्यकता नहीं है। अपूर्ण को पूर्ण न समझ लिया जाय ह्न इसके लिए भी' का प्रयोग है। दूसरे शब्दों में जो बात अंश के बारे में कही जा रही है, उसे पूर्ण के बारे में न जान लिया जाय ह इसके लिए 'भी' का प्रयोग है, अनेक मिथ्या एकान्तों के जोड़तोड़ के लिए नहीं।
इसीप्रकार 'ही' का प्रयोग 'आग्रही' का प्रयोग न होकर इस बात को स्पष्ट करने के लिए है कि अंश के बारे में जो कहा गया है, वह पूर्णत: सत्य है। उस दृष्टि से वस्तु वैसी ही है, अन्य रूप नहीं।
समन्तभद्रादि आचार्यों ने पद-पद पर 'ही' का प्रयोग किया है।' 'ही' के प्रयोग का समर्थन तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में इसप्रकार किया है ह्र
"वाक्येऽवधारणं तावदनिष्ठार्थ निवृत्तये ।
कर्त्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् ।' १.सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादि चतुष्टयात् ।
असदेव विपर्यासन्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।। ह्र आप्तमीमांसा, श्लोक १५ २. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, अ. १, सूत्र ६, श्लोक ५३
अनेकान्त और स्याद्वाद
वाक्यों में 'ही' का प्रयोग अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति और दृढ़ता के लिए करना ही चाहिए, अन्यथा कहीं-कहीं वह वाक्य नहीं कहा गया सरीखा समझा जाता है।"
युक्त्यनुशासन श्लोक ४१-४२ में आचार्य समन्तभद्र ने भी इसीप्रकार का भाव व्यक्त किया है। इस संदर्भ में सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्दजी लिखते हैं ह्र
"इसी तरह वाक्य में एवकार (ही) का प्रयोग न करने पर भी सर्वथा एकान्त को मानना पड़ेगा; क्योंकि उस स्थिति में अनेकान्त का निराकरण अवश्यम्भावी है। जैसे ह्र उपयोग लक्षण जीव का ही है' ह्र इस वाक्य में एवकार (ही) होने से यह सिद्ध होता है कि उपयोग लक्षण अन्य किसी का न होकर जीव का ही है; अत: यदि इसमें से 'ही' को निकाल दिया जाय तो उपयोग अजीव का भी लक्षण हो सकता है।"
प्रमाण वाक्य में मात्र स्यात् पद का प्रयोग होता है, किन्तु नय वाक्य में स्यात् पद के साथ-साथ एव (ही) का प्रयोग भी आवश्यक है। 'ही' सम्यक् एकान्त की सूचक है और 'भी' सम्यक् अनेकान्त की। ___ यद्यपि जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन कहा जाता है; तथापि यदि उसे सर्वथा अनेकान्तवादी मानें तो यह भी तो एकान्त हो जायेगा। अतः जैनदर्शन में अनेकान्त में भी अनेकान्त को स्वीकार किया गया है।
जैनदर्शन सर्वथा न एकान्तवादी है न सर्वथा अनेकान्तवादी। वह कथंचित् एकान्तवादी और कथंचित् अनेकान्तवादी है। इसी का नाम अनेकान्त में अनेकान्त है। कहा भी है ह्र "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः ।
अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ।। १. जैनन्याय, पृष्ठ ३०० २. स्वयंभूस्तोत्र, श्लोक १०३
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