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मैं कौन हूँ? अनन्त होगा, वहाँ अन्त का अर्थ गुण लेना चाहिए। इस व्याख्या के अनुसार अर्थ होगा ह्र अनन्तगुणात्मक वस्तु ही अनेकान्त है; किन्तु जहाँ अनेक का अर्थ दो लिया जायेगा, वहाँ अन्त का अर्थ धर्म होगा। तब यह अर्थ होगा ह्न परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले दो धर्मों का एक ही वस्तु में होना अनेकान्त है।
स्यात्कार का प्रयोग धर्मों में होता है, गुणों में नहीं। सर्वत्र ही स्यात्कार का प्रयोग धर्मों के साथ किया है, कहीं भी अनुजीवी गुणों के साथ नहीं।'
यद्यपि 'धर्म' शब्द का सामान्य अर्थ गुण होता है, पर शक्ति आदि नामों से भी उसे अभिहित किया जाता है; तथापि गुण और धर्म में कुछ अन्तर है। प्रत्येक वस्तु में अनन्त शक्तियाँ हैं, जिन्हें गुण, धर्म या स्वभाव कहते हैं। उनमें से जो शक्तियाँ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं या सापेक्ष होती हैं और जिनकी पर्यायें नहीं होती हैं; उन्हें धर्म कहते हैं। ये धर्म नामक शक्तियाँ जोड़े से होती हैं। जैसे ह्न नित्यता-अनित्यता, एकताअनेकता, सत्-असत्, भिन्नता-अभिन्नता आदि । __ जो शक्तियाँ विरोधाभास से रहित हैं, निरपेक्ष हैं और जिनकी पर्यायें होती हैं, उन्हें गुण कहते हैं। जैसे ह्न आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख आदि; पुद्गल के रूप, रस, गंध आदि। ___ कुछ शक्तियाँ ऐसी भी होती हैं, जिनकी न तो पर्यायें होती हैं और न जिनमें कोई विरोधाभास होता है। इन शक्तियों को स्वभाव कहते हैं। त्यागोपादानशून्यशक्ति गुण या धर्मरूप न होकर स्वभावरूप है। इसप्रकार शक्तियाँ तीन रूपों में पाई जाती हैं ह्र गुण, धर्म और स्वभाव ।
जिन गुणों में परस्पर कोई विरोध नहीं है, एक वस्तु में उनकी एक साथ सत्ता तो सभी वादी-प्रतिवादी सहज स्वीकार कर लेते हैं; किन्तु जिनमें विरोध-सा प्रतिभासित होता है, उन्हें स्याद्वादी ही स्वीकार करते हैं। इतर जन उनमें से किसी एक पक्ष को ग्रहण कर पक्षपाती हो जाते हैं। १. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग ४, पृष्ठ ५०१
अनेकान्त और स्याद्वाद
अत: अनेकान्त की परिभाषा में परस्पर विरुद्ध शक्तियों के प्रकाशन पर विशेष बल दिया गया है।
प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले अनेक युगल (जोड़े) पाये जाते हैं; अत: वस्तु केवल अनेक गुणों का ही पिण्ड नहीं है; किन्तु परस्पर विरोधी दिखनेवाले अनेक धर्म-युगलों का भी पिण्ड है।
उन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्मों को स्याद्वाद अपनी सापेक्ष शैली से प्रतिपादन करता है।
प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं। उन सबका कथन एक साथ सम्भव नहीं है; क्योंकि शब्दों की शक्ति सीमित है। शब्द एक समय में एक ही धर्म को कह सकते हैं। अतः अनन्त धर्मों में एक विवक्षित धर्म मुख्य होता है, जिसका कि प्रतिपादन किया जाता है, बाकी अन्य सभी धर्म गौण होते हैं; क्योंकि उनके सम्बन्ध में अभी कुछ नहीं कहा जा रहा है। ___ यह मुख्यता और गौणता वस्तु में विद्यमान धर्मों की अपेक्षा नहीं; किन्तु वक्ता की इच्छानुसार होती है। विवक्षा-अविवक्षा वाणी के भेद हैं, वस्तु के नहीं। वस्तु में तो सभी धर्म प्रति समय अपनी पूरी हैसियत से विद्यमान रहते हैं, उनमें मुख्य-गौण का कोई प्रश्न ही नहीं है; क्योंकि वस्तु में तो उन परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्मों को अपने में धारण करने की शक्ति सदा ही विद्यमान है; क्योंकि वे तो उस वस्तु में अनादिकाल से विद्यमान हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे।
उनको एक साथ कहने की सामर्थ्य वाणी में न होने से वाणी में विवक्षा-अविवक्षा और मुख्य-गौण का भेद पाया जाता है।
वस्तु तो पर से निरपेक्ष ही है। उसे अपने गुण-धर्मों को धारण करने में किसी पर की अपेक्षा रंचमात्र भी नहीं है। उसमें नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता आदि सब धर्म एकसाथ विद्यमान रहते हैं। द्रव्यदृष्टि से वस्तु जिस समय नित्य है, पर्याय दृष्टि से उसी समय अनित्य भी है।
वाणी से जब नित्यता का कथन किया जायेगा, तब अनित्यता का कथन सम्भव नहीं है। अत: जब हम वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन