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अहिंसा
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मैं कौन हूँ? हिंसा के दो भेद करके समझाया गया है। भावहिंसा और द्रव्यहिंसा। रागादि के उत्पन्न होने पर आत्मभावों के उपयोग की शुद्धता (शुद्धोपयोग) का घात होना भावहिंसा है और रागादि भाव हैं निमित्त जिसमें, ऐसे अपने और पराये द्रव्यप्राणों का घात होना द्रव्यहिंसा है। ____ व्यवहार में जिसे हिंसा कहते हैं ह्र जैसे किसी को सताना, दुःख देना
आदि; वह हिंसा न हो, यह बात नहीं है। वह तो हिंसा है ही; क्योंकि उसमें प्रमाद का योग रहता है। ___ आचार्य उमास्वामी ने 'प्रमत्तयोगात्-प्राणव्यपरोपणं हिंसा' कहा है। प्रमाद के योग से प्राणियों के द्रव्य और भाव प्राणों का घात होना हिंसा है। उनका प्रमाद से आशय मोह-राग-द्वेष आदि विकारों से ही है। अतः उक्त कथन में द्रव्य-भाव में दोनों प्रकार की हिंसा समाहित हो जाती है। परन्तु हमारा लक्ष्य प्रायः बाह्य हिंसा पर केन्द्रित रहता है. अंतरंग में होने वाली भावहिंसा की ओर नहीं जा पाता है; अतः यहाँ पर विशेषकर अंतरंग में होने वाली रागादिभावरूप भावहिंसा की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि तीव्र राग तो हिंसा है, पर मंदराग को हिंसा क्यों कहते हो? किन्तु जब राग हिंसा है तो मंदराग अहिंसा कैसे हो जायेगा? वह भी तो राग की ही एक दशा है। यह बात अवश्य है कि मंदराग मंदहिंसा है और तीव्रराग तीव्रहिंसा है। अतः यदि हम हिंसा का पूर्ण त्याग नहीं कर सकते हैं तो उसे मंद तो करना ही चाहिए। राग जितना घटे उतना ही अच्छा है, पर उसके सद्भाव को धर्म नहीं कहा जा सकता है। धर्म तो राग-द्वेष-मोह का अभाव ही है और वही अहिंसा है, जिसे परमधर्म कहा जाता है। ___ एक यह प्रश्न भी संभव है कि ऐसी अहिंसा पूर्णतः तो साधु के भी संभव नहीं है। अतः सामान्यजनों (श्रावकों) को तो दयारूप (दूसरों को बचाने का भाव) अहिंसा ही सच्ची है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने श्रावक के आचरण के प्रकरण में ही इस बात को लेकर यह सिद्ध कर दिया है कि अहिंसा दो प्रकार की नहीं होती। अहिंसा को जीवन में उतारने के स्तर कई हो सकते हैं; पर हिंसा तो हिंसा ही रहेगी। यदि कोई पूर्ण हिंसा का त्यागी नहीं हो सकता तो अल्प हिंसा का त्याग करे, पर जो हिंसा वह छोड़ न सके उसे अहिंसा तो नहीं माना जा सकता है। यदि हम पूर्णतः हिंसा का त्याग नहीं कर सकते तो अंशतः त्याग करना चाहिए। यदि वह भी न कर सकें तो कम से कम हिंसा में धर्म मानना और कहना तो छोड़ना चाहिए। शुभराग, राग होने से हिंसा में आता है; अतः उसे धर्म नहीं माना जा सकता।
यहाँ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी हो सकता है कि जब मारने के भाव हिंसा हैं तो बचाने के भाव का नाम अहिंसा होगा? और शास्त्रों में उसे मारने के भाव की अपेक्षा मंदकषाय एवं शुभभावरूप होने से व्यवहार से अहिंसा कहा भी है; परन्तु निश्चय से ऐसा नहीं है तथा यही बात तो जैनदर्शन में सूक्ष्मता से समझने की है। जैनदर्शन का कहना है कि मारने का भाव तो हिंसा है ही; किन्तु बचाने का भाव भी निश्चय से हिंसा ही है क्योंकि वह भी रागभाव ही है और राग चाहे वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो, हिंसा ही है। पूर्व में हिंसा की परिभाषा में राग की उत्पत्ति मात्र को हिंसा बताया जा चुका है।
यद्यपि बचाने का राग मारने के राग की अपेक्षा प्रशस्त है; तथापि है तो राग ही। राग तो आग है। आग चाहे नीम की हो या चन्दन की ह जलायेगी ही। उसीप्रकार सर्व प्रकार का राग हिंसारूप ही होता है। अहिंसा तो वीतराग परिणति का नाम है, शुभाशुभ राग का नाम नहीं।
यद्यपि मारने के भाव से पाप का बंध होता है और बचाने के भाव से पुण्य का; तथापि होता तो बंध ही है, बंध का अभाव नहीं। धर्म तो बंध का अभाव करने वाला है; अतः बंध के कारण को धर्म कैसे कहा जा