________________
अहिंसा
'अहिंसा परमो धर्मः' अहिंसा को परमधर्म घोषित करने वाली यह सूक्ति आज भी बहु प्रचलित है। यह तो एक स्वीकृत तथ्य है कि अहिंसा परमधर्म है; पर प्रश्न यह है कि अहिंसा क्या है?
साधारण भाषा में अहिंसा शब्द का अर्थ होता है ह्र हिंसा न करना; किन्तु जब भी हिंसा-अहिंसा की चर्चा चलती है, तो हमारा ध्यान प्रायः दूसरे जीवों को मारना, सताना या उनकी रक्षा करना आदि की ओर ही जाता है। हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध प्रायः दूसरों से ही जोड़ा जाता है। दूसरों की हिंसा मत करो, बस यही अहिंसा है, ऐसा ही सर्वाधिक विश्वास है; किन्तु यह एकांगी दृष्टिकोण है। अपनी भी हिंसा होती है, इस ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। जिनका जाता भी है तो वे भी आत्महिंसा का अर्थ केवल विषभक्षणादि द्वारा आत्मघात ( आत्महत्या) ही मानते हैं, उसकी गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न नहीं किया जाता है।
अन्तर में राग-द्वेष-मोह की उत्पत्ति का होना भी हिंसा है, यह बहुत कम लोग जानते हैं।
प्रसिद्ध जैनाचार्य अमृतचन्द्र ने अन्तरंग पक्ष को लक्ष्य में रखते हुए पुरुषार्थसिद्धयुपाय में हिंसा-अहिंसा की निम्नलिखित परिभाषा दी है ह्र "अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भव्यत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥
आत्मा में राग-द्वेष-मोहादि भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और इन भावों का आत्मा में उत्पन्न नहीं होना ही अहिंसा है। यही जिनागम का सार है । "
यहाँ स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि क्या फिर जीवों का मरना, मारना हिंसा नहीं है और उनकी रक्षा करना अहिंसा नहीं ?
14
अहिंसा
इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व हमें जीवन और मरण के स्वरूप पर विचार करना होगा ।
'मरणं प्रकृतिर्शरीरिणां' ह्र इस सूक्ति के अनुसार यह एक स्थापित सत्य है कि जो जन्म लेता है, वह एक न एक दिन मरता अवश्य है; शरीरधारी अमर नहीं है। समय आने पर या तो वह दूसरे प्राणी द्वारा मार डाला जाता है या स्वयं मर जाता है।
२७
यदि मृत्यु को हिंसा मानें तो कभी भी हिंसा की समाप्ति नहीं होगी तथा जीवन या जन्म को अहिंसा मानना होगा; क्योंकि जीवन और जन्म मरण के विलोम शब्द हैं। अतः मृत्यु को हिंसा मानना संभव नहीं है। लोक में भी यथासमय बिना बाह्य कारण के होने वाली मृत्यु को हिंसा नहीं कहा जाता है और न सहज जीवन या जन्म को अहिंसा ही कहा जाता है। इसीप्रकार बाढ़, भूकम्प आदि प्राकृतिक कारणों से भी हजारों प्राणी मर जाते हैं; किन्तु उसे भी हिंसा के अन्तर्गत नहीं लिया जाता है।
इसप्रकार मरना हिंसा और जीवन या जन्म अहिंसा ह्न यह तो सिद्ध नहीं होता।
जहाँ तक मारने और बचाने की बात है, उसके सम्बन्ध में समयसार में समागत आचार्य कुन्दकुन्द के निम्नलिखित कथनों की ओर ध्यान देना होगा ह्र
"जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं ।
सो मूढ़ो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।। २४७ ।। आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं ।। २४८ ।। आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउं ण हरंति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं ।। २४८ ।। जो मणदि जीवेमिय जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढ़ो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो ।। २५० ।।