________________
शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर उक्त संदर्भ में आचार्य पूज्यपाद के 'समाधिशतक' की संस्कृत टीका का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -
"तीर्थकृतः संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागमः।'
जिसप्रकार तीर्थंकर संसार-सागर से पार होने के हेतु होने से तीर्थ कहे जाते हैं; उसीप्रकार आगम को भी तीर्थ कहा जाता है।
मूलाचार में द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ की चर्चा करते हुए समस्त जिनवरदेवों को भावतीर्थ कहा है। मूलाचार का मूलकथन इसप्रकार है -
"दुविहं च होइ तित्थं णादव्वं दव्वभाव संजुत्तं । एदेसिं दोण्हंपि य पत्तेय परूवणा होदि। दाहोपसमणंतण्हा छेदो मलपंक पवहणंचेव। तिहिं कारणेहिं जुत्तो तम्हा तं दव्वदो तित्थं ।। दसणणाणचरित्ते णिजुत्ता जिणवरा दुसव्वेपि।
तिहिं कारणेहिं जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थम् ।' द्रव्य और भाव के भेद से तीर्थ दो प्रकार का है। इन दोनों की प्ररूपणा भिन्न-भिन्न होती है।
संताप शान्त होता है, तृष्णा का नाश होता है, मलपंक की शुद्धि होती है - इन तीन कारणों से युक्त द्रव्यतीर्थ होते हैं।
सभी जिनदेव दर्शन, ज्ञान और चारित्र से युक्त होते हैं और इसीकारण वे भावतीर्थ कहे जाते हैं।"
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में तीर्थंकरों के समान आचार्यों को भी धर्मतीर्थ का प्रवर्तक कहा गया है, जो इसप्रकार है -
१. जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश भाग-२, पृष्ठ ३९३ २. वही, पृष्ठ ३९३