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शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर
वस्तुतः बात यह है कि गृहविरत मुनिराज गृहस्थों के समागम में क्यों रहना चाहेंगे ? यदि उनके समागम में ही रहना होता तो वे गृहस्थी का त्याग ही क्यों करते ? यही रहस्य है हमारे साधु-संतों का वनवासी होने का, गिरि-गुफावासी होने का, पर्वत की चोटियों पर आत्मसाधना करने का और हमारे तीर्थों का पर्वतों की चोटियों पर होने का, निर्जन वनप्रान्त में होने का।
धीर-वीर साधु-संतों का धर्म तो एकमात्र ध्यान ही है, ध्यान की अवस्था में ही केवलज्ञान होता है, अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। द्रव्यसंग्रह में तो यहाँ तक लिखा है कि निश्चय और व्यवहार दोनों ही प्रकार का मोक्षमार्ग ध्यान में ही प्राप्त होता है। द्रव्यसंग्रह का मूल कथन इसप्रकार है - "दुविहं पि मोक्खहेडं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा।
तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समन्मसह ।' निश्चय और व्यवहार दोनों ही प्रकार का मोक्षमार्ग ध्यान में ही प्राप्त होता है। इसलिए हे मुनिराज आप लोग प्रयत्नपूर्वक ध्यान का अभ्यास करें।"
यह ध्यान एकान्त में ही होता है। इसकी सिद्धि के लिए ही साधुजन, घर-परिवार छोड़कर वन-जंगल में रहते हैं, पर आजकल कुछ लोग
औरों की देखा-देखी ध्यान भी जोड़े से करने लगे हैं, वातानुकूलित हाल में बैठकर सामूहिक रूप से करने लगे हैं। ___ अरे भाई ! यदि ध्यान की सिद्धि वातानुकूलित कमरों में परिवार के साथ बैठकर होती होती तो हमारे तीर्थंकरों के घर में क्या कमी थी ?
क्या उनके यहाँ एक भी वातानुकूलित कमरा न होगा? १. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल : पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ ५५ से ५८