________________
२०
शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर उन्हें इष्ट नहीं है। जब हम भी किसी काम की जल्दी में होते हैं तो कहाँ ध्यान रहता है स्वाद का ? उन्हें भी गृहस्थ के घर से भागने की जल्दी है, सामायिक में बैठने की जल्दी है, आत्मसाधना करने की जल्दी है ।
बच्चों का मन भी जब खेल में होता है तो वे भी कहाँ शान्ति से बैठकर खाते हैं। माँ के अति अनुरोध पर खड़े-खड़े थोड़ा-बहुत खाकर खेलने भागते हैं। मन तो खेल में है, उन्हें खाने की फुर्सत नहीं । उसीप्रकार हमारे मुनिराजों का मन तो आत्मध्यान में है, उन्हें शान्ति से बैठकर खाने की फुर्सत कहाँ है ?
इसीप्रकार भरपेट खाने के बाद आलस का आना स्वाभाविक ही है । अतः जिन मुनिराजों को आहार से लौटने पर छह घड़ी तक सामायिक करनी है, उन्हें प्रमाद बढाने वाला भरपेट भोजन कैसे सुहा सकता है ?
I
जब छात्रों की परीक्षाएँ होती हैं, इसकारण उन्हें देर रात तक पढना होता है, तब वे भी शाम का भोजन अल्प ही लेते हैं । इसकारण मुनिराजों का आहार अल्पाहार ही होता है । वे तो मात्र जीने के लिए शुद्धसात्त्विक, अल्प आहार लेते हैं। वे आहार के लिए नहीं जीते, जीने के लिए आहार लेते हैं । भरपेट आहार कर लेने पर पानी भी पूरा नहीं पिया जायेगा और बाद में प्यास लगेगी। वे तो भोजन के समय ही पानी लेते हैं, बाद में तो पानी भी नहीं पीते । पानी की कमी के कारण भोजन भी ठीक से नहीं पचेगा और कब्ज आदि अनेक रोग आ घेरेंगे। ऐसी स्थिति में आत्मसाधना में भी बाधा पड़ेगी । अतः वे अल्पाहार ही लेते हैं ।
हाथ में आहार लेने के पीछे भी रहस्य है । यदि थाली में आहार लेवें तो फिर बैठकर ही लेना होगा, खड़े-खड़े आहार थाली में सम्भव नहीं है । दूसरे थाली में उनकी इच्छा के विरुद्ध भी अधिक या अनपेक्षित सामग्री रखी जा सकती है। जूठा छोड़ना उचित न होने से खाने में अधिक आ सकता है । हाथ में यह सम्भव नहीं है । यदि किसी ने कदाचित्
1