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शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर
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करते हुए इस बात के संकेत दिये हैं कि इन्द्र ने गिरनार पर्वत पर बज्र से मुक्ति स्थान को चिह्नित किया था ।
अतः यह सुनिश्चित ही समझना चाहिए कि जहाँ जो चरणचिन्ह हैं, वे स्थान मूलरूप से वे ही हैं ।
इसप्रकार की श्रद्धा रहने से उक्त स्थान पर पहुँचने पर सहज निर्मलभाव होते हैं, भक्तिभाव विशेष उमड़ता है, वैराग्यभाव जागृत होता है, आत्मकल्याण करने की भावना प्रबल होती है, भावनाओं का विशेष परिपाक होता है।
यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि हमारे जितने भी सिद्धक्षेत्र हैं, वे सभी प्रायः पर्वतों की चोटियों पर ही हैं; जबकि वैष्णव धर्म के क्षेत्र लगभग समतल भूमियों पर हैं। गंगा के किनारे हैं, समुद्र के किनारे हैं, समतल भूमि पर जो सुविधाएँ हो सकती हैं, वे सुविधायें पर्वत की चोटियों पर कैसे सम्भव हैं ?
गंगा के किनारे या समुद्र के किनारे जो निर्माण कार्य होगा या मंदिर बनवाये जावेंगे; उनमें जलादि की सहज उपलब्धि होने से व समतल भूमि होने से कम से कम व्यय होगा, श्रम भी कम से कम होगा; पर जब किसी पर्वत की चोटी पर निर्माण कार्य होगा; मंदिर बनाया जायेगा तो सौगुना व्यय होगा; क्योंकि नीचे से ऊपर सीमेन्ट की बोरी ले जाने में ही मूल कीमत से भी चौगुनी मजदूरी लगती है।
प्रत्येक वस्तु नीचे से ले जानी होती है । इसकारण बहुत तकलीफ होती है, व्यय भी अधिक होता है, साज-संभार भी कठिन होती है ।
पर्वत शिखर के ये ऊबड़-खाबड़ रास्ते कठिनाइयों से भरे होते हैं । पहले तो लोगों को थोड़ा-बहुत चलने का अभ्यास भी होता था, पर आजकल तो चलने का अभ्यास भी नहीं रहा है। यदि कोई थोड़ा-बहुत