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शाश्वत तीर्थधामसम्मेदशिखर व्यवस्था है। जिसप्रकार दिन-रात, पक्ष-मास, ऋतुयें और वर्ष अपने को दुहराते हैं; उसीप्रकार शताब्दियाँ, सहस्राब्दियाँ आदि का संख्यातीत काल भी किन्हीं प्राकृतिक नियमों के द्वारा अपने को दुहराते हैं। कालचक्र के इस परिवर्तन में स्वाभाविक उतार-चढाव आते हैं, जिन्हें जैन परिभाषा में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के नाम से जाना जाता है।
जहाँ उत्सर्पिणी क्रमशः बढता जाता है और अवसर्पिणी में उसी क्रम से घटता जाता है। इसप्रकार यदि उत्सर्पिणी बढने का नाम है तो अवसर्पिणी घटने का। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों में प्रत्येक का काल दस-दस कोड़ा-कोड़ी सागर है। इसप्रकार कुल मिलाकर बीस कोड़ा-कोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। प्रत्येक कल्पकाल में तीर्थंकरों की दो चौबीसी होती हैं। __ अवसर्पिणी काल के छह भेद हैं (१) सुखमा-सुखमा (२) सुखमा (३) सुखमा-दुखमा (४) दुखमा-सुखमा (५) दुखमा (६) दुखमादुखमा।
इसीप्रकार उत्सर्पिणी भी छह प्रकार का होता है - (६) दुखमादुखमा (५) दुखमा (४) दुखमा-सुखमा (३) सुखमा-दुखमा (२) सुखमा (१) सुखमा-सुखमा।
उक्त कालों में सुख-दुख की स्थिति उनके नामानुसार ही होती है। यहाँ सुख शब्द लौकिक सुख (भोग) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तृतीय काल तक भोग की ही प्रधानता रहती है, यहाँ तक कि आध्यात्मिक उन्नति के तो अवसर ही प्राप्त नहीं होते। तीर्थंकरों की उत्पत्ति चतुर्थकाल में ही होती है और मुक्ति मार्ग में भी चतुर्थकाल में ही चलता है । इस दृष्टि से चतुर्थकाल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । तृतीयकाल के अन्त में चौदह कुलकर होते हैं और चतुर्थ काल में त्रेसठ शलाका के महापुरुष ।