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________________ समयसार अनुशीलन 274 जो आत्मा आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा अपने श्रद्धा, ज्ञान और चारित्रगुण को आत्मसम्मुख करते हैं अर्थात् ऐसा श्रद्धान करते हैं कि मैं तो त्रिकालीध्रुव ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा हूँ; ऐसा ही जानते हैं और इसी आत्मा में उपयोग स्थिर कर लीन हो जाते हैं; वे सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को प्राप्तकर अनन्त सुखी हो जाते हैं। ___ अतः प्रत्येक आत्मार्थी भाई-बहिन का कर्तव्य है कि वे अपने श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र को पुरुषार्थपूर्वक निज आत्मा की ओर मोड़ें; क्योंकि सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। इसप्रकार इस कलश में इन्द्रियों के माध्यम से विषय-विकार में फंसे और नयों के विकल्पजाल में उलझे आत्मा को निजस्वभाव से भ्रष्ट बताकर, अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा निज शुद्धात्मतत्त्व को प्राप्त करने की प्रेरणा दी गई है। इसप्रकार ९३ एवं ९४ इन दो कलशों में नयपक्षातीत भगवान आत्मा के प्रकरण का समापन करके अब आगामी ५ कलशों में सम्पूर्ण कर्ताकर्म अधिकार का समापन करते हैं। . ( अनुष्टुप् ) विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलम् । न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति ॥ ९५॥ (रोला) है विकल्प ही कर्म विकल्पक कर्ता होवे । जो विकल्प को करे वही तो कर्ता होवे ॥ नित अज्ञानी जीव विकल्पों में ही होवे । इस विधि कर्ताकर्मभाव का नाश न होवे ॥ ९५॥ विकल्प करनेवाला कर्ता है और वह विकल्प ही उसका कर्म है। इसप्रकार सविकल्पपुरुषों की कर्ताकर्मप्रवृत्ति कभी नष्ट नहीं होती। तात्पर्य यह है कि जबतक विकल्पभाव हैं, तबतक कर्ताकर्मभाव है और जब विकल्पों का अभाव हो जाता है, तब कर्ताकर्मभाव का भी अभाव हो जाता है।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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