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________________ समयसार अनुशीलन ( सवैया इकतीसा ) दरब की नय अर परजायनय दोऊ, 266 श्रुतग्यानरूप श्रुतग्यान तो परोख है । सुद्ध परमातमाको अनुभौ प्रगट तातें, अनुभौ विराजमान अनुभौ अदोख है । अनुभौ प्रवांन भगवान पुरुष पुरान, ग्यान और विग्यानघन महासुखपोख है । परम पवित्र यौं अनंत नाम अनुभौके, अनुभौ बिना न कहूँ और ठौर मोख है ॥ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों ही नय श्रुतज्ञान हैं और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण है तथा शुद्ध आत्मा का अनुभव प्रत्यक्ष प्रमाण है । यह अनुभव निर्दोष है, सुशोभित है, प्रमाण है, भगवान है, पुरुष है, पुराण है, ज्ञान है, विज्ञानघन है, महान है और सुख का पोषण करनेवाला है। यह अनुभव परम पवित्र है, इसके अनन्त नाम हैं, यह मोक्ष स्वरूप है, मोक्ष का कारण है; इसके बिना अन्यत्र कहीं भी मोक्ष नहीं है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ बनारसीदासजी ने सभी विशेषण अनुभव के बना दिये हैं। भगवान, पुण्य, पुराण, पुमान, ज्ञान आदि सभी को अनुभव का नामान्तर बताया है। कलश टीका में भी इसीप्रकार की ध्वनि विद्यमान है और बनारसीदासजी ने इस भाव को वहीं से ग्रहण किया है। दूसरे यहाँ भी मूल छन्द में नयों के नाम नहीं हैं; परन्तु बनारसीदासजी कलशटीका के अनुकरण पर यहाँ द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक नय ही लेते हैं, पहले के समान निश्चय - व्यवहार नय नहीं लेते। इससे प्रतीत होता है कि बनारसीदासजी को दोनों प्रकार के नयों के लेने में कोई संकोच नहीं है; किन्तु कलशटीकाकार सर्वत्र ही द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक नयों को ही लेते आ रहे हैं । इस सम्बन्ध में विस्तृत समीक्षा पहले की ही जा चुकी है। अतः यहाँ कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है। १४४ वीं गाथा में समयसार (शुद्धात्मा) को सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहा ही है। अतः समयसार के नामान्तरों को अनुभव के नामान्तर कहना
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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