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समयसार अनुशीलन
भावार्थ यह है कि आगमज्ञान से ज्ञानस्वरूप आत्मा का निश्चय करके इन्द्रिय बुद्धिरूप मतिज्ञान को ज्ञानभाव में ही मिलाकर तथा श्रुतज्ञानरूपी नयों के विकल्प मिटाकर श्रुतज्ञान को भी निर्विकल्प करके एक अखण्ड प्रतिभास का अनुभव करने को ही सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान कहते हैं। सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान अनुभव से कोई जुदी वस्तु नहीं है । "
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इसप्रकार कर्त्ताकर्म- अधिकार की इस अन्तिम गाथा और उसकी टीका में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने की विधि बताकर यह कहा गया है कि समयसाररूप भगवान आत्मा अथवा उसके अनुभव का नाम ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।
अब यहाँ १४४ वीं गाथा की समाप्ति के साथ ही कर्त्ताकर्म- अधिकार भी समाप्त हो रहा है। इस अवसर पर आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति टीका में ७ कलश लिखते हैं, जिनमें आरंभ के दो कलश तो पक्षातिक्रान्त समयसार का स्वरूप बतानेवाले प्रकरण से संबंधित हैं, शेष ५ कलश सम्पूर्ण कर्त्ताकर्मअधिकार के समापन कलश हैं।
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( शार्दूलविक्रीडित )
आक्रामन्नविकल्पभावमचलं
पक्षैर्नयानां विना । सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् ॥ विज्ञानैकरसः स एष भगवान्पुण्यः पुराणः पुमान् । ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किचनैकोऽप्ययम् ॥ ९३ ॥
( हरिगीत )
यह पुण्य पुरुष पुराण सब नयपक्ष बिन भगवान है । यह अचल है अविकल्प है बस यही दर्शन ज्ञान है ॥ निभृतजनों का स्वाद्य है अर जो समय का सार है । जो भी हो वह एक ही अनुभूति का आधार है ॥ ९३ ॥
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३६९