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________________ 259 गाथा १४४ .. पहले श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव आत्मा का स्वरूप सुनिश्चित करके, भलीभाँति समझकर फिर आत्मा की ख्याति के लिए, प्रगट प्रसिद्धि के लिए, आत्मानुभूति के लिए; परपदार्थों की प्रसिद्धि की हेतुभूत इन्द्रियों और मन के द्वारा प्रवर्त्तमान बुद्धियों को मर्यादा में लेकर, आत्मोन्मुख करके; जिसने मतिज्ञानतत्त्व को आत्मसम्मुख किया है, मतिज्ञान को आत्मोन्मुख किया है; वह, तथा नानाप्रकार के नयपक्षों के अवलम्बन से होनेवाले अनेक विकल्पों 'के द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लेकर, आत्मोन्मुख करके; जो श्रुतज्ञान को भी आत्मसम्मुख करता हुआ अत्यन्त विकल्परहित होकर; शीघ्र ही, तत्काल ही निजरस से ही प्रगट होता हुआ; आदि, अन्त और मध्य से रहित, अनाकुल, केवल एक, सम्पूर्ण ही विश्व पर मानो तैरता हो - ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त विज्ञानघन परमात्मरूप समयसार का जब वह आत्मा अनुभव करता है, तब उसी समय आत्मा सम्यकतया दिखाई देता है और ज्ञात होता है। इसलिए समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है । " यहाँ टीका में यह तो कहा ही गया है कि स्वानुभूतिसम्पन्न, पक्षातिक्रान्त, समयसारस्वरूप, भगवान आत्मा ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है; साथ ही पक्षातिक्रान्त होने की, सम्यग्दर्शन- ज्ञान प्राप्त करने की, आत्मानुभूति प्राप्त करने की विधि भी बताई गई है। J - इस विधि में यह बताया गया है कि सर्वप्रथम क्या करना चाहिए। आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए करणलब्धि का होना आवश्यक है और करणलब्धि देशनालब्धि के बिना नहीं होती । अतः सर्वप्रथम देशनालब्धि की बात है और देशनालब्धि के लिए सर्वप्रथम श्रुतज्ञान के माध्यम से, देव गुरु के सदुपदेश से, जिनवाणी के स्वाध्याय से, ज्ञानी धर्मात्मा के संबोधन से, तत्संबंधी अध्ययन से, मनन से, चिन्तन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करना चाहिए, ज्ञानस्वभावी आत्मा का विकल्पात्मक ज्ञान में सम्यक् निर्णय करना चाहिए, आत्मा के ज्ञानस्वभाव को भलीभाँति समझना चाहिए; क्योंकि
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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