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________________ 251 गाथा १४३ विज्ञानधन स्वभावी होने से, श्रुतज्ञान की भूमिका की अतिक्रान्तता के द्वारा अर्थात् श्रुतज्ञान की भूमिका को पार कर चुकने के कारण समस्त नयपक्ष के परिग्रहण से दूर हुये होने से किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते। उसीप्रकार जो श्रुतज्ञानी आत्मा तत्संबंधी क्षयोपशम से उत्पन्न श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होने पर भी पर का ग्रहण करने के प्रति उत्सुकता से निवृत्त हुआ होने से श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार-निश्चयपक्षों के स्वरूप को केवल जानता ही है; परन्तु अतितीक्ष्ण ज्ञानदृष्टि से ग्रहण किये गये निस्तुष, नित्य-उदित, चिन्मय समय (आत्मा) से प्रतिबद्धता के द्वारा अर्थात् चैतन्य आत्मा के अनुभव द्वारा अनुभव के समय स्वयमेव विज्ञानघन होने से श्रुतज्ञानात्मक समस्त अन्तर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पों की भूमिका की अतिक्रान्तता द्वारा समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुआ होने से किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता हुआ; वह श्रुतज्ञानी आत्मा भी वस्तुतः समस्त विकल्पों से अति पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्जोति आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है।" टीका का सार संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए पंडित जयचंदजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - "जैसे केवली भगवान सदा नयपक्ष के स्वरूप के साक्षी (ज्ञातादृष्टा) हैं। उसीप्रकार श्रुतज्ञानी भी जब समस्त नयपक्षों से रहित होकर शुद्ध चैतन्यमात्र भाव का अनुभवन करते हैं, तब वे नयपक्ष के स्वरूप के ज्ञाता ही है। यदि एक नय का सर्वथा पक्ष ग्रहण किया जाये, तो मिथ्यात्व के साथ मिला हुआ राग होता है, प्रयोजनवश एक नय को प्रधान करके उसका ग्रहण करे, तो मिथ्यात्व के अतिरिक्त मात्र चारित्र मोह का राग रहता है और जब नयपक्ष को छोड़कर वस्तुस्वरूप को मात्र जानते ही हैं, तब उस समय श्रुतज्ञानी भी केवलज्ञानी की भाँति वीतराग जैसे ही होते हैं -ऐसा जानना।" ___ उक्त सम्पूर्ण विषयवस्तु को स्वामीजी ने बहुत ही बढ़िया ढंग से स्पष्ट किया है। अतः अपनी ओर से कुछ भी टिप्पणी किये बिना उनके स्पष्टीकरण को उद्धृत कर देना ही पर्याप्त लगता है जो इसप्रकार है -
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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