SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अनुशीलन ध्यान में रखकर ही बनारसीदासजी ने यहाँ निश्चय - व्यवहारनयों का प्रयोग करना ही उपयुक्त समझा है। यह भी हो सकता है कि पाण्डे राजमलजी के समान उनकी दृष्टि में भी व्यवहारनय और पर्यायार्थिकनय एकार्थवाची ही हों । इसकारण उन्होंने इस ओर विशेष ध्यान ही न दिया हो और सहज छन्दानुरोध से निश्चय - व्यवहार शब्दों का प्रयोग कर दिया हो । जो भी हो, मूल बात यह है कि दोनों ही अर्थ सही हैं और प्रस्तुत प्रकरण में पूर्णत: घटित भी हो जाते हैं तथा आत्मख्याति के कलश के भाव को पूरी तरह स्पष्ट करने में समर्थ हैं। 244 पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने दोनों में से किसी भी नय के नाम का उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने तो सभी २२ छन्दों में 'एक नय का पक्ष है कि आत्मा बंधा है और दूसरे नय से अबंध है' - इसप्रकार 'एक नय' और 'दूसरें नय' शब्दों से ही काम चला लिया है। प्रश्न - इस प्रकरण में आपने सबके मत तो बताये, पर आपका मत क्या है ? - यह नहीं बताया । उत्तर - अरे भाई ! हमारा क्या मत है, हमारा मत तो वही है, जो आचार्यों का है । समयसार १४१वीं गाथा में इसी बात को बताने के लिए शुद्धनय और व्यवहारनय का प्रयोग है और ये कलश भी १४२वीं गाथा के तत्काल बाद आये हैं, प्रकरण भी वही चल रहा है। इसकारण मेरा बल तो निश्चय - व्यवहार की ओर ही जाता है। अकेली कलशटीका को छोड़कर अन्यत्र लगभग सभी जगह निश्चय - व्यवहार नयों का ही प्रयोग है। 8 नयों के प्रकरण में भी पाण्डे राजमलजी की धारा आज तक प्राप्त आगमअध्यात्म धारा से कुछ अलग हटकर ही है, उसी की छाया यहाँ भी आ गई लगती है। दूसरे और तीसरे बिन्दु के संदर्भ में भी दो प्रश्न सामने आते हैं। प्रथम तो यह कि आत्मा अनुभव के काल में ही नयपक्षातीत होता है और दूसरा यह कि वस्तु का सम्यक् स्वरूप जाननेवाले आत्मानुभवी ज्ञानी सदा ही नयपक्षातीत हैं। जहाँ पक्ष का अर्थ तत्संबंधी विकल्प ही लिया जाय; वहाँ प्रथम अर्थ घटित होगा और जहाँ पक्ष का अर्थ पक्षपात लिया जाय अथवा एक पक्ष के प्रतिपादन में अपर पक्ष का सर्वथा निषेध अभीष्ट हो; वहाँ दूसरा अर्थ घटित होगा।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy