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________________ समयसार अनुशीलन 240 के स्थान पर क्रमशः मूढ़-अमूढ़, रागी-अरागी, द्वेषी-अद्वेषी, कर्ता-अकर्ता आदि पद रखकर शेष छन्द बनाये गये हैं। अतः एक ७०वें छन्द का भाव खयाल में आ जाने पर शेष छन्दों का भाव भी सहज ही भासित हो जाता है। __यही कारण है कि कलशटीकाकार पाण्डे राजमलजी ने कलश टीका में मात्र एक ७०वें छन्द का ही अर्थ किया है, शेष छन्दों का अर्थ ही नहीं किया। कलशटीका में ७०वें छन्द का जो अर्थ किया गया है, उसका भाव इसप्रकार है - "चैतन्यमात्र वस्तु में द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दो नयों के दो ही पक्षपात हैं। जीवद्रव्य अनादि से कर्म संयोग के साथ एक पर्यायरूप विभावरूप परिणमा है। इसप्रकार द्रव्यस्वरूप को ग्रहण न कर मात्र बंधपर्याय की ओर से देखें तो जीव बंधा है। एक पर्यायार्थिक नय का पक्ष तो यह है। दूसरा द्रव्यार्थिक नय का पक्ष यह है कि जीव द्रव्य अनादिनिधन चेतना लक्षण है, उसमें बन्धन है ही नहीं, वह सदा अपने रूप ही रहता है; क्योंकि कोई द्रव्य अन्य द्रव्य के द्रव्य-गुणपर्यायरूप नहीं परिणमता। ___ जो व्यक्ति जीव के शुद्ध चेतनामात्र स्वभाव का अनुभवशील है, वह उक्त पक्षपात से रहित है। एक वस्तु की अनेक रूप कल्पना करने का नाम ही पक्षपात है और वस्तुमात्र का स्वाद आने पर कल्पनाबुद्धि सहज ही मिट जाती है। शुद्धस्वरूप का अनुभव करने वाले को चैतन्यवस्तु का प्रत्यक्ष स्वाद आता है। अतः वह नयपक्षातीत है।" कविवर पण्डित बनारसीदासजी नाटक समयसार में सर्वत्र कलश टीका का अनुसरण करते हैं, इसकारण उन्होंने भी सभी २० छन्दों के भाव को लेकर समयसार में एक ही छन्द बनाया है, जो इसप्रकार है - ( सवैया इकतीसा) विवहार-दृष्टिसौं विलोकत बंध्यौसी दीसै, निहचै निहारत न बांध्यौ यह किनिहीं। . एक पच्छ बंध्यौ एक पच्छसौ अबंध सदा, . --- दोउ पच्छ अपने अनादि धरे इनिहीं ॥
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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