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स्वरूप तो सामने आया ही, सामाजिक वातावरण भी लगभग शांत हो गया। क्रमबद्धपर्याय, परमभावप्रकाशक नयचक्र एवं निमित्तोपादान जैसी कृतियाँ इसका सशक्त प्रमाण हैं। आज ये विषय विवाद की वस्तु नहीं रहे; अतः अब तो विरोध केवल विरोध के लिए होता है और उसमें व्यक्तिगत बातें ही अधिक होती हैं, तात्त्विक बातें न के बराबर ही समझिये।
हमारा पक्का विश्वास है कि डॉ. भारिल्ल ने हमारे अनुरोध पर जो समयसार अनुशीलन आरम्भ किया है, उससे न केवल मुमुक्षु समाज को लाभ होगा, अपितु वातावरण की शुद्धि में भी यह अनुशीलन उपयोगी सिद्ध होगा।" .. वीतराग-विज्ञान के जून, १९९२ के अंक से जब इसका सम्पादकीय के रूप में प्रकाशन आरंभ हुआ, तब ही से अनुकूल प्रतिक्रियाएं आने लगी और इन लेखों को पुस्तकाकार प्रकाशित करने की मांग भी आने लगी।वैसे तो हम उनके सभी सम्पादकीयों को पुस्तकाकार प्रकाशित करते ही आ रहे हैं, इन्हें भी करते ही; पर लोगों को धैर्य नहीं था, वे अधिक प्रतीक्षा नहीं करना चाहते थे।
दिसम्बर, १९९२ में देवलाली (महाराष्ट्र) में लगने वाले शिविर में डॉ. भारिल्ल ने वीतराग-विज्ञान के सम्पादकीयों के आधार पर समयसार की छठवीं-सातवीं गाथायें लीं, तो इनके पुस्तकाकार प्रकाशन की माँग और अधिक तीव्रता से उठने लगी, फलतः २६ मई, १९९३ को समयसार अनुशीलन भाग १ का पूर्वार्द्ध, २४ अप्रैल, १९९४ को उत्तरार्द्ध तथा १५ अगस्त, १९९४ को दोनों का संयुक्त संस्करण प्रकाशित किया गया। भाग २ को भी इसीप्रकार प्रकाशित किया जा रहा है। इसका पूर्वार्द्ध (गाथा ६९ से ११५ तक) मई, १९९५ में ५ हजार २०० की संख्या में प्रकाशित हो ही चुका है, अब इसका उत्तरार्द्ध (गाथा ११६ से १६३) तक तथा दोनों का संयुक्त संस्करण आपके हाथों में है। आशा है यह कृति आपकी आत्मपिपाशा को शांत करने में सफल होगी।
गुरुदेवश्री का तो अनन्त उपकार हम सब पर है ही; क्योंकि उन्होंने न केवल हमको विस्तार से सब कुछ समझाया है, अपितु जिनवाणी का मर्म