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गाथा १२८-१२९
इन गाथाओं की टीका के बाद आचार्य अमृतचन्द्र जो छन्द (कलश) लिखते हैं, उसमें भी इसी भाव को दुहराया गया है, इसी भाव की पुष्टि की गई है। वह छन्द इसप्रकार है -
( अनुष्टुप् ) ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि । सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ॥६७॥
(रोला) ज्ञानी के सब भाव ज्ञान से बने हुए हैं। अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमयी हैं। उपादान के ही समान कारज होते हैं ।
जौ बोने पर जौ ही तो पैदा होते हैं ॥६७॥ ज्ञानी के समस्त भाव ज्ञान से रचित होते हैं और अज्ञानी के सभी भाव अज्ञान से रचित होते हैं।
इन गाथाओं और इस कलश का भाव यह है कि चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती ज्ञानी जीवों के चारित्र की कमजोरी से जो भूमिकानुसार रागादिभावों का परिणमन पाया जाता है, वह परिणमन भी ज्ञानमयभाव ही कहलाता है; क्योंकि ज्ञानी जीव के उन रागादि के होने पर भी अनन्तसंसार को करनेवाला मिथ्यात्वादि का बंध नहीं होता। चारित्रमोहोदय संबंधी जो भी बंध होता है, वह अत्यन्त अल्प होता है, अनन्त संसार का कारण नहीं होता। इसकारण यहाँ उसे बंध में गिनते ही नहीं हैं। ___ इन बातों का बहुत-कुछ स्पष्टीकरण पाण्डे राजमलजी ने कलश टीका में इस कलश के भावार्थ में लिखा है, जो इसप्रकार है -
"भावार्थ इसप्रकार है कि सम्यग्दृष्टि जीव की और मिथ्यादृष्टि जीव की क्रिया तो एक-सी है, क्रियासम्बन्धी विषय-कषाय भी एक-से है; परन्तु द्रव्य का परिणमन भेद है। - विवरण - सम्यग्दृष्टि का द्रव्य शुद्धत्वरूप परिणमा है, इसलिये जो कोई परिणाम बुद्धिपूर्वक अनुभवरूप है अथवा विचाररूप है अथवा व्रत-क्रियारूप