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________________ 395 कलश पद्यानुवाद निजपरपरिणति जानकार जीव यह, परपरिणति को करता कभी नहीं । निजपरपरिणति अजानकार पुद्गल, परपरिणति को करता कभी नहीं ॥ नित्य अत्यन्त भेद जीव-पुद्गल में, . करता-करमभाव उनमें बने नहीं, ऐसो भेदज्ञान जबतक प्रगटे नहीं, ___करता-करम की प्रवृत्ती मिटे नहीं ॥५०॥ ( हरिगीत ) कर्ता वही जो परिणमे परिणाम ही बस कर्म है। है परिणति ही क्रिया बस तीनों अभिन्न अखण्ड हैं ॥५१॥ अनेक होकर एक है हो परिणमित बस एक ही । परिणाम हो बस एक का हो परिणति बस एक की ॥५२॥ परिणाम दो का एक ना मिलकर नहीं दो परिणमे । परिणति दो की एक ना बस क्योंकि दोनों भिन्न हैं ॥५३॥ कर्ता नहीं दो एक के हों एक के दो कर्म ना । ना दो क्रियायें एक की हों क्योंकि एक अनेक ना ॥५४॥ 'पर को करूं मैं' - यह अहं अत्यन्त ही दुर्वार है । यह है अखण्ड अनादि से जीवन हुआ दुःस्वार है ॥ भूतार्थनय के ग्रहण से यदि प्रलय को यह प्राप्त हो । तो ज्ञान के घनपिण्ड आतम को कभी न बंध हो ॥५५॥ ( दोहा ) परभावों को पर करे आतम आतमभाव । आप आपके भाव हैं पर के हैं परभाव ॥५६॥ ( कुण्डलिया ) . नाज सम्मिलित घास को, ज्यों खावे गजराज । भिन्न स्वाद जाने नहीं, समझे मीठी घास ॥ समझे मीठी घास नाज को न पहिचाने । त्यों अज्ञानी जीव निजातम स्वाद न जाने ॥ पुण्य-पाप में धार एकता शून्य हिया है। अरे शिखरणी पी माने गो दूध पिया है ॥५७॥
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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