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________________ समयसार अनुशीलन इसप्रकार इस कलश में यह कहा गया है कि कुछ लोग आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जाने बिना, आत्मानुभव किये बिना; व्रत-उपवासादि क्रियायें करके ही अपने को धर्मात्मा मान लेते हैं। ऐसे जीव कर्मनय के पक्षपाती हैं, एकान्ती हैं; इस कारण वे संसार सागर में डूबने वाले ही हैं। 384 दूसरे कुछ लोग ऐसे भी होते हैं कि जो आत्मा की बातें तो बहुत करते हैं, पर आत्मा का अनुभव उन्हें नहीं होता । आत्मा के अनुभव बिना ही स्वयं को ज्ञानी मान लेने वाले वे लोग स्वच्छन्द हो जाते हैं, प्रमादी हो जाते हैं; भूमिकानुसार होने वाले सदाचरण की भी उपेक्षा करते हैं । ऐसे लोग ज्ञाननय के पक्षपाती हैं, एकान्ती हैं; इसकारण संसार में ही भटकने वाले हैं। ज्ञानी धर्मात्मा तो आत्मज्ञानी होते हैं, आत्मानुभवी होते हैं और भूमिकानुसार उनका जीवन भी पवित्र होता है, सदाचारी होता है। ऐसा होने पर भी वे अपने उस सदाचरण को, भूमिकानुसार होने वाले शुभभावों को धर्म नहीं मानते। उनकी दृष्टि में धर्म तो आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होने वाला निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रररूप निर्मल परिणमन ही है। इसप्रकार यहाँ पुण्यपापाधिकार समाप्त हो रहा है। अतः अन्त मंगलाचरण के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र एक कलश लिखते हैं, जो इसप्रकार है ( मन्दक्रान्ता ) - भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटयत्पीतमोहं । मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन ॥ हेलोन्मीलत्परमकलया सार्धमारब्धकेलि । ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजृम्भे भरेण ॥ ११२ ॥ ( हरिगीत ) जग शुभ अशुभ में भेद माने मोह मदिरापान से । पर भेद इनमें है नहीं जाना है सम्यग्ज्ञान से ॥ यह ज्ञानज्योति तमविरोधी खेले जयवंत हो इस जगत में जगमगै केवलज्ञान से । आतमज्ञान से ॥ ११२ ॥
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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