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________________ 371 हुआ अपना समरसीभावरूप परिणाम है। वही मोक्ष का कारणरूप स्वभाव है। यह शुभाशुभभाव उस चारित्ररूप स्वभाव को रोकनेवाला भाव है। इसे चाहे व्यवहार कहो, कषाय कहो या चारित्र का विरोधीभाव कहो - ये सब एकार्थवाचक हैं। गाथा १६१-१६३ उस चारित्र को रोकने वाली कषाय है । दया- दान - व्रत-तप आदि का जो शुभभाव है, वह चारित्र को रोकने वाला है । वह शुभभाव ही स्वयं कर्म है, उसके उदय से अर्थात् उत्पन्न होने से आत्मा के अचारित्रपना होता है। इसीलिए कहा है कि कर्म स्वयं मोक्ष के कारण का तिरोधायी भावस्वरूप होने से उसका निषेध किया गया है। इससे स्पष्ट है कि शुभभाव धर्म नहीं है; क्योंकि वह विकारीभाव होने से स्वयं निषेध कर दिया गया है। वह धर्म तो है ही नहीं, धर्म का कारण भी नहीं है, बल्कि धर्म से विरुद्ध स्वभाववाला है। धर्मी जीवों को भी शुभभाव आता है; परन्तु उसे वह धर्म नहीं मानते, बल्कि हेय मानते है । " स्वामीजी के उक्त स्पष्टीकरण के बाद कहने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता है। इसप्रकार यहाँ पुण्यपापाधिकार की गाथाएँ समाप्त हो रही हैं । विगत सात गाथाओं का तात्पर्य बताते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं "पहले तीन गाथाओं में कहा था कि कर्म मोक्ष के कारणरूप भावों का, सम्यक्त्वादि का घातक है । बाद की एक गाथा में यह कहा है कि कर्म स्वयं ही बन्धस्वरूप है । और इन अन्तिम तीन गाथाओं में कहा है कि कर्म मोक्ष के कारणरूप भावों से विरोधी भावस्वरूप है - मिथ्यात्वादिस्वरूप है। इसप्रकार यह बताया है कि कर्म मोक्ष के कारण का घातक है, बन्धस्वरूप. है और बन्ध का कारणस्वरूप है; इसलिये निषिद्ध है। — १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १६९. २. वही, पृष्ठ १७१
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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