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________________ समयसार अनुशीलन 358 अशुभ क्रियारूप जो आचरण या चारित्र है; वह जिसतरह करने योग्य नहीं है, उसीतरह निषेध करने योग्य भी तो नहीं है। उसका समाधान इसप्रकार है कि - निषेध करने योग्य है; क्योंकि उसका व्यवहारचारित्र नाम होते हुये भी वह दुष्ट है, अनिष्ट है, घातक है, इसकारण विषय-कषाय की तरह ही क्रियारूप चारित्र भी निषिद्ध है। अब कहते हैं कि 'मोक्षहेतु तिरोधायित्वात्' अर्थात् व्रतादिरूप जितना शुभकर्म है, वह सब मोक्ष के कारण के विरुद्ध स्वभाववाला है, इसकारण उस कर्म का निषेध किया गया है। इसप्रकार शुभकर्म निम्नांकित तीन बोलों से निषिद्ध किया गया है - १. कर्म मोक्ष के कारण का घातक है। २. कर्म स्वयं बंध का स्वरूप है। ३. कर्म मोक्ष के कारणों के विरुद्धस्वभाववाला है। भगवान आत्मा तो चैतन्यस्वभावी सदा मुक्तस्वरूप ही है तथा इसके आश्रय से जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के निर्मल परिणाम होते हैं, वे भी अबन्धस्वरूप हैं; इसलिए एकमात्र वे ही मोक्ष के कारण हैं। अत: यह सिद्ध हुआ कि शुभभाव से आत्मा का कल्याण होना मानना मिथ्यादर्शन है। ___ यहाँ मिथ्यादर्शन, ज्ञान व चारित्र के परिणाम को विपरीत स्वभाववाला कहकर जड़ अचेतन कहा है। तात्पर्य यह है कि जहाँ चैतन्य के सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप परिणाम होते हैं, वहाँ मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र के परिणाम नहीं होते। दोनों जाति के परिणाम एक साथ नहीं होते। जिसे आत्मा का निर्विकल्प श्रद्धान ज्ञान एवं शान्ति का वेदन होता है, उसे कदाचित् राग होता है; परन्तु उस ज्ञानी-समकिती को मिथ्यात्व नहीं होने से उस राग के प्रति स्वामित्व नहीं होता। इसकारण उसे पूर्ण वीतरागता न होने पर भी मिथ्याचारित्र नहीं है, सम्यक् चारित्र ही है। स्वभाव से ही आत्मद्रव्य भगवानस्वरूप वीतरागस्वरूप है। उसका श्रद्धान-ज्ञान व रमणतारूप परिणाम मोक्षमार्ग है और शुभाशुभ कर्म उसके १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १४०
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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