SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अनुशीलन 352 कारण जो भी रहा हो, पर इस गाथा की टीका करते समय आचार्य जयसेन आत्मख्याति का अनुकरण न करके आचार्य अमृतचन्द्र की अन्य कृति पुरुषार्थसिद्धयुपाय का अनुकरण करते दिखाई देते हैं। इसप्रकार इस गाथा में यह सुनिश्चित कर दिया गया है कि मुक्ति का कारण एक त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा अथवा उसके आश्रय से उत्पन्न होने वाली रत्नत्रयरूप परिणति है। अब आगामी गाथा में यह स्पष्ट करेंगे कि इससे अन्य जो भी शुभाशुभभाव, पुण्य-पाप के परिणाम या तत्संबंधी प्रवृत्तियाँ, जिन्हें यहाँ कर्म नाम से अभिहित किया गया है, वे मुक्ति का कारण नहीं हैं। सत्यधर्म को वचन तक सीमित कर देने से एक बड़ा नुकसान यह हआ कि उसकी खोज ही खो गई। जिसकी खोज जारी हो उसका मिलना संभव है, पर जिसकी खोज ही खो गई हो वह कैसे मिले ? जबतक सत्य को समझते नहीं, खोज चालू रहती है। किन्तु जब किसी गलत चीज को सत्य मान लिया जाता है तो उसकी खोज भी बन्द कर दी जाती है। जब खोज ही बन्द कर दी जावे तो फिर मिलने का प्रश्न ही कहाँ रह जाता है ? ___ हत्यारे की खोज तभी तक होती है जबतक कि हत्या के अपराध में किसी को पकड़ा नहीं जाता। जिसने हत्या नहीं की हो, यदि उसे हत्या के अपराध में पकड़ लिया जाये, सजा दे दी जाये, तो असली हत्यारा कभी नहीं पकड़ा जायेगा। क्योंकि अब तो फाइल ही बन्द हो गई, अब तो जगत की दृष्टि में हत्यारा मिल ही गया, उसे सजा भी मिल गई। अब खोज का क्या काम ? जब खोज बन्द हो गई तो असली हत्यारे का मिलना भी असंभव है। __ इसीप्रकार जब सत्यवचन को सत्यधर्म मान लिया गया तो फिर असली सत्यधर्म की खोज का प्रश्न ही कहाँ रहा? सत्यवचन को सत्यधर्म मान लेने से सबसे बड़ी हानि यह हुई कि सत्यधर्म की खोज खो गई। - धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ ७२ - -
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy