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________________ समयसार अनुशीलन 326 कविवर पंडित बनारसीदासजी नाटक समयसार में इस छोटे से छन्द का इकतीसा सवैया जैसे बड़े छन्द में भावानुवाद इसप्रकार करते हैं - ( इकतीसा सवैया ) सील तप संजम विरति दान पूजादिक, अथवा असंजम कषाय विषै-भोग है। कोऊ सुभरूप कोऊ अशुभ स्वरूप मूल, वस्तु के विचारत दुविध कर्मरोग है ॥ ऐसी बंध पद्धति बखानी वीतराग देव, आतम धरम मैं करम त्याग-जोग है। भौ-जल-तरैया राग-द्वेष की हरैया महा, मोख को करैया एक सुद्ध उपयोग है ॥ शील, तप, संयम, व्रत, दान और पूजा आदि अथवा असंयम, कषाय और विषय-भोग; यद्यपि इनमें से कोई तो शुभभावरूप हैं और कोई अशुभभाव रूप हैं; तथापि मूलवस्तु के विचार करने पर, वस्तु के मूल स्वरूप का विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों ही कर्मरूपी रोग हैं। वीतरागी अरहंत भगवान ने बंधपद्धति का ऐसा स्वरूप बताया है और कहा है कि आत्मधर्म में, आत्मा के धर्म में तो सभी कर्म त्याग करने योग्य ही हैं। संसाररूपी समुद्र से पार उतारने वाला, राग-द्वेष का हरण करने वाला - नाश करने वाला, महान मोक्ष का करने वाला तो एक शुद्धोपयोग ही है। देखो, इस छन्द में शील, तप, संयम, व्रत, दान, पूजा रूप शुभभावों और विषय-भोग, कषाय और असंयम को एक ही पंक्ति में रखा है, एक समान ही हेय बताया है। संस्कृत के मूल छन्द में तो सभी कर्म' मात्र इतना ही संकेत किया था; किन्तु इस भावानुवाद में उन सभी शुभाशुभकर्मों के नाम गिना दिये हैं। मूल छन्द में ज्ञान को शिवहेतु कहा था और यहाँ ज्ञान शब्द का अर्थ शुद्धोपयोग किया है। एक शुद्धोपयोग ही मोक्ष का करने वाला है' - इसका भाव ही यह है कि अशुभोपयोग के समान शुभोपयोग भी बंध का ही कारण है, मुक्ति का कारण नहीं।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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