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________________ 317 'गाथा १४६-१४९ • इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जिसप्रकार सोने और लोहे की बेड़ी बिना किसी अन्तर के पुरुष को बाँधती हैं; क्योंकि बन्धन की अपेक्षा उनमें कोई अन्तर नहीं है। उसीप्रकार शुभ और अशुभ कर्म बिना किसी अन्तर के जीव को बाँधते हैं; क्योंकि बंधभाव की अपेक्षा उनमें कोई अन्तर नहीं है। जिसप्रकार मनोरम हो या अमनोरम, पर कुशील हथिनीरूपी कुट्टनी के साथ राग और संसर्ग करना हाथी के लिए बन्धन का कारण होता है; उसीप्रकार शुभ हों या अशुभ, पर कुशील कर्मों के साथ राग और संसर्ग करना जीव के लिए बंधन का कारण होता है। इसकारण यहाँ शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग करने का निषेध किया गया है। . ___ जिसप्रकार कोई जंगल का कुशल हाथी अपने बंधन के लिए निकट आती हुई सुन्दर मुखवाली मनोरम अथवा अमनोरम हथिनीरूपी कुट्टनी को परमार्थतः बुरी जानकर उसके साथ राग या संसर्ग नहीं करता; उसीप्रकार आत्मा अरागी ज्ञानी होता हुआ अपने बंध के लिए समीप आती हुई (उदय में आती हुई) मनोरम या अमनोरम (शुभ या अशुभ) सभी कर्मप्रकृतियों को परमार्थतः बुरी जानकर उनके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता।" ___ उक्त कथन के भाव को सरल भाषा में प्रस्तुत करते हुए पंडित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - ___ "हाथी को पकड़ने के लिए हथिनी रखी जाती है। हाथी कामान्ध होता हुआ उस हथिनी रूपी कुट्टनी के साथ राग तथा संसर्ग करता है; इसलिए वह पकड़ा जाता है और पराधीन होकर दुख भोगता है। जो हाथी चतुर होता है, । वह उस हथिनी के साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता। ___ इसीप्रकार अज्ञानी जीव कर्मप्रकृति को अच्छा समझ कर, उसके साथ राग तथा संसर्ग करते हैं; इसलिए वे बंध में पड़कर पराधीन बनकर संसार के दुःख भोगते हैं और जो ज्ञानी होता है, वह उसके साथ कभी राग व संसर्ग नहीं करता।"
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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