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________________ 301 पुण्यपापाधिकार उदय से वह अज्ञान नष्ट हो गया और यह सद्ज्ञान प्रगट हो गया कि पाप के समान ही पुण्य भी मुक्तिमार्ग में हेय ही है। इस छन्द का भावानुवाद कविवर पण्डित बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं - (कवित्त मात्रिक) जाके उदै होत घट-अंतर, बिनसै मोह महातम रोक । सुभ अरु असुभ करम की दुविधा मिटै सहज दीसै इक थोक ॥ जाकी कला होत संपूरन, प्रतिभासै सब लोक अलोक । सो प्रबोधससि निरखि बनारसि सीस नवाइ देत पग धोक ॥ हृदय में जिसके उदय होने पर मोहरूपी महाअंधकार नष्ट हो जाता है, शुभ कर्म अच्छा और अशुभ कर्म बुरा - यह दुविधा मिट जाती है और शुभ और अशुभ - दोनों ही कर्म एक से ही दिखाई देने लगते हैं; उस ज्ञानरूपी चन्द्रमा को देखकर बनारसीदासजी मस्तक नवाकर नमस्कार करते हैं। इस कलश का भावार्थ स्पष्ट करते हुए पाण्डे राजमलजी कलश टीका में लिखते हैं - __ "किसी मिथ्यादृष्टि जीव का अभिप्राय ऐसा है - जो दया, व्रत, तप,शील, संयम आदि से देहरूप लेकर जितनी है शुभ क्रिया और शुभ क्रिया के अनुसार है उस रूप जो शुभोपयोग परिणाम तथा उन परिणामों को निमित्त कर बाँधता है जो साताकर्म आदि से लेकर पुण्यरूप पुद्गलपिण्ड, वे भले हैं, जीव को सुखकारी है। हिंसा विषय-कषायरूप जितनी है क्रिया, उस क्रिया के अनुसार अशुभोपयोगरूप संक्लेश परिणाम, उस परिणाम के निमित्त कर होता है जो असाताकर्म आदि से लेकर पापबन्धरूप पुद्गलपण्डि; वे बुरे हैं, जीव को दुःखकर्ता हैं। ऐसा कोई जीव मानता है। उसके प्रति समाधान ऐसा कि जैसे अशुभकर्म जीव को दुःख करता है; उसीप्रकार शुभकर्म भी जीव को दुःख करता है। कर्म में तो भला कोई नहीं है। अपने मोह को लिये हुए मिथ्यादृष्टि जीव कर्म को भला करके मानता है। ऐसी भेद प्रतीति शुद्धस्वरूप का अनुभव हुआ तब से पायी जाती है।"
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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