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________________ 294 समयसार अनुशीलन ___ आत्मा चित्शक्तियों से भरा अर्थात् ज्ञान के अविभागी प्रतिच्छेदों के समूह से भरा, गम्भीर ज्ञानज्योतिस्वरूप वस्तु है। जिनके दो विभाग नहीं हो सकते - ऐसे सूक्ष्म अंश को अविभागी-प्रतिच्छेद कहते हैं । ज्ञानस्वभावी आत्मज्योति ऐसे ही अनन्त अविभागी अंशों का पिण्ड है। जब वह ज्ञानज्योति अंतरंग में उग्रपने जाज्वल्यमान होती है, तो तुरंत ही अज्ञान के कारण अबतक हुए कर्तृत्वभाव का अभाव हो जाता है और फिर वह ज्ञानस्वभाव ज्ञानरूप ही रहता है व पुद्गल पुद्गलरूप ही रहता है जो पहले अज्ञान अवस्था में अपनी मिथ्या मान्यता के कारण स्वयं को राग का व पर का कर्ता मानते थे, वे ही बाद में जब अपने ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा को पहचान लेते हैं, तो पर का व राग का कर्तृत्व छोड़कर केवल ज्ञाता-दृष्टा हो जाते हैं तथा राग के निमित्त से जो पुद्गल कर्मरूप होते थे, वे कर्मरूप नहीं होते। ज्ञान ज्ञानरूप रहता है, पुद्गल पुद्गलरूप एवं भगवान चिद्घन चिद्घन ही रहता है। दोनों को भिन्न-भिन्न जानने का नाम ही भेदज्ञान है, उसका फल केवलज्ञान है, सिद्धपद है।" _ जिसप्रकार प्रकाश के होने से सभी पदार्थ पृथक्-पृथक् भासित होने लगते हैं; उसीप्रकार ज्ञानज्योति के प्रकाशित होने से ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा ज्ञातारूप भासित होने लगा और जड़ पुद्गल पुद्गलरूप भासित होने लगा; सहज ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव प्रस्फुटित हो गया। - यही कहा गया है इस ९९ कलश में। - इसप्रकार यहाँ कर्ता-कर्म-अधिकार समाप्त होता है। इसका समापन करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में जो अन्तिम वाक्य लिखते हैं, वह इसप्रकार हैं - "इति जीवाजीवौ कर्तृकर्मवेषविमुक्तौ निष्क्रान्तौ - इसप्रकार जीव और अजीव कर्ता-कर्म का वेष त्यागकर बाहर निकल गये।" .. यह तो पहले स्पष्ट किया ही जा चुका है कि आत्मख्याति में समयसार को नाटक के रूप प्रस्तुत किया गया है। अतः यहां इस संबंध में कुछ विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३९९
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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