SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अनुशीलन 290 - इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्ताकर्माधिकार के मंथन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि यद्यपि राग-द्वेष-मोहरूप भावकर्मों का कर्ता अज्ञानी आत्मा होता है; तथापि ज्ञानावरणादि जड़कर्मों और शरीरादि नोकर्मों का कर्त्ता तो ज्ञानी व अज्ञानी कोई भी जीव नहीं है। आगम में जहाँ भी आत्मा को जड़कर्मों और नोकर्मों का कर्ता कहा गया हो, वह सब असद्भूतव्यवहारनय का उपचरित कथन ही समझना चाहिए। 'वस्तु की स्थिति उक्त कथनानुसार अत्यन्त स्पष्ट होने पर भी अज्ञानियों के परकर्तृत्वसंबंधी मोह न जाने क्यों नाचता है?' - इसप्रकार का आश्चर्य इस ९८ में कलश व्यक्त किया गया है। - इसके बाद आचार्य अमृतचन्द्र इस कलश के उपसंहार और आगामी कलश की उत्थानिका के रूप में एक वाक्य लिखते हैं, जो इसप्रकार है - __ "अथवा नानट्यतां तथापि - अथवा मोह नाचता है तो नाचे, तो भी" इसका भाव यह है कि मोह नाचता है तो भले ही नाचे; पर उससे वस्तु की स्थिति में तो कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं है; क्योंकि वस्तु स्थिति तो जो है सो है। ज्ञानज्योति के जलने पर सबकुछ सहज हो जाता है। 'ज्ञानज्योति के जलने पर क्या होता है' - इसका स्पष्टीकरण आगामी कलश में है। इसप्रकार आगामी कलश में आचार्यदेव ज्ञानज्योति का स्मरण करते हुए कर्ताकर्म अधिकार का समापन करते हैं - (मन्दाक्रान्ता) कर्ता कर्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव । ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि । ज्ञानज्योतिलितमचलं व्यक्तमंतस्तथोच्चै - श्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यंतगंभीरमेतत् ॥९९॥ ( सवैया इकतीसा ) जगमग जगमग जली ज्ञानज्योति जब, अति गंभीर चित् शक्तियों के भार से। अद्भुत अनूपम अचल अभेद ज्योति, . व्यक्त धीर-वीर निर्मल आर-पार से ॥
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy