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________________ समयसार अनुशीलन 288 इस जगत में सभी पदार्थ अपने-अपने में विलसित हो रहे हैं,यथायोग्य सहजभाव से परिणमित हो रहे हैं, फिर भी मोह की मार से विकल लोग ऐसा कहते हैं कि जीव जड़कर्मों का कर्ता है। तात्पर्य यह है कि जीव को जड़कों का कर्त्ता कहना मोह में नाचना है। __ यद्यपि कलशटीका और नाटक समयसार के कथनों में थोड़ा-बहुत अन्तर दिखाई देता है; तथापि दोनों का निष्कर्ष एक ही है और वह यह कि ज्ञानावरणादि जड़कर्मों का कर्ता तो अज्ञानी जीव भी नहीं है। - पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में इस छन्द का निष्कर्ष इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - ___ "कर्म तो पुद्गल है, जीव को उसका कर्ता कहना असत्य है। उन दोनों में अत्यन्त भेद है, न तो जीव पुद्गल में है और न पुद्गल जीव में; तब फिर उनमें कर्ताकर्मभाव कैसे हो सकता है ? इसलिये जीव तो ज्ञाता है, सो ज्ञाता ही है, वह पुद्गलकर्मों का कर्ता नहीं है और पुद्गलकर्म हैं, वे पुद्गल ही हैं; ज्ञाता का कर्म नहीं है।आचार्यदेव ने खेदपूर्वक कहा है कि इसप्रकार प्रगट भिन्न द्रव्य हैं तथापि 'मैं कर्त्ता हूँ और यह पुद्गल मेरा कर्म है' इसप्रकार अज्ञानी का यह मोह (अज्ञान) क्यों नाच रहा है ?" इस कलश में भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जो रागादि विकल्प स्वतः स्व-समय में अपनी पर्यायगत योग्यता से होते हैं, उन्हें मैं करता हूँ - ऐसे कर्तृत्वरूप मिथ्यात्व भाव से परिणत हुआ जीव कर्ता कहा जाता है। वह कर्ता जीव भी जड़ कर्मों को नहीं करता तथा वे जड़कर्म भी उस कर्ता के कर्म (कार्य) नहीं हो सकते; क्योंकि जड़कर्मों का कर्ता चेतन नहीं होता। ... आत्मा अपने अशुद्ध परिणमन का कर्त्ता तो है; परन्तु जड़कर्मों का कर्त्ता नहीं है तथा जड़कर्म भी अपनी पर्याय के कर्ता हैं; परन्तु वे चेतन की पर्याय को नहीं करते - ऐसी स्थिति में दोनों के बीच कर्ता-कर्मपना कहाँ रहा ? - भाई ! शरीर, मन, वाणी की क्रिया का कर्ता तो अज्ञानी भी नहीं है; क्योंकि परस्पर द्वन्द है, भिन्नता है। जहाँ भिन्नता है, वहाँ कर्ता-कर्म का क्या सम्बन्ध ?
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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