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________________ १४ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का में दीक्षा ले ली और जगत से अलिप्त ही रह गये। उन्हें क्या पता कि लौकिक व्यवहार क्या होता है ? आज की दुनिया कितनी बदल गई है, कहाँ से कहाँ पहुँच गई है। पर धीरे-धीरे हमारी समझ में आया कि समझदारी का काम तो इस दुनियादारी से अलिप्त रहना ही है। उनका कहना तो यह था कि हमारे पास तो यह असली माल है। जिसको लेना हो, ले ले; समझना हो समझ लें। समझ में आये तो यह है, समझ में न आये तो यह है। अरे, भाई ! समझ में क्यों नहीं आयेगा ? प्रत्येक आत्मा स्वयं समझ का पिण्ड है न, भगवान है न ! जब शेर की समझ में आ गया था तो मनुष्यों की समझ में क्यों नहीं आयेगा ? यदि वे चारणऋद्धिधारी मुनिराज भी यही सोचते कि इस क्रूर शेर की समझ में कैसे आयेगा, तो फिर क्या होता, उस सिंह को देशना कैसे प्राप्त होती, बिना देशनालब्धि के उसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति भी कैसे होती ? सन् १९७२-७३ में जब मैं 'तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ' पुस्तक लिख रहा था; तब इस प्रकरण को लिखते समय मुझे बहुत विकल्प खड़े हुए कि मुनिराजों ने आखिर शेर को क्या समझाया होगा ? इसके लिए मैंने उक्त प्रसंग को अनेक शास्त्रों में देखा तो लगभग सभी जगह यही लिखा था कि हे मृगराज ! तेरी यह क्या दशा हो रही है, तू तो भविष्य का तीर्थंकर है, तू महावीर के रूप में चौबीसवाँ तीर्थंकर होनेवाला है । इसीप्रकार की अनेक बातें लिखी पाईं। मैंने भी उसी के अनुसार एक-दो पेज लिख दिये। पुस्तक छपने में चली गई थी। जल्दी होने से रात में ही उक्त पेज छप रहे थे; पर मुझे रात के २ बजे यह विचार आया कि त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा का स्वरूप समझे बिना सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है ? अतः यह निश्चित ही है कि मुनिराजों ने उसे दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा का स्वरूप अवश्य समझाया होगा। यदि यह सत्य है तो अपने को भी इस प्रसंग पर उक्त विषय का विवेचन अवश्य करना चाहिए। पहला प्रवचन १५ यह सोच ही रहा था कि यह प्रश्न उपस्थित हो गया कि यह पर और पर्याय से भिन्न त्रिकाली भगवान आत्मा की बात शेर को समझ में कैसे आई होगी ? अन्तत: इस निर्णय पर पहुँचा कि आई तो थी ही, यदि नहीं आई होती तो सम्यग्दर्शन कैसे होता ? दूसरी बात यह भी तो है कि शास्त्रों में जो कुछ लिखा है और अपन ने भी अभी तक जो कुछ लिखा है; वह भी तो लगभग ऐसा ही है। तुम भविष्य में तीर्थंकर होनेवाले हो ह्न यह बात भी तो शेर के लिए आसान नहीं है; क्योंकि वह क्या जाने कि तीर्थंकर क्या होता है। इसीप्रकार तुम सातवें नरक से आये हो ह्न यह समझना भी तो उसे आसान नहीं है; क्योंकि वह क्या जाने स्वर्ग-नरक। स्वर्ग कितने होते हैं और नरक कितने होते हैं, वह तो यह भी नहीं जानता। अतः इस विकल्प से कि समझ में नहीं आयेगी आत्मा की बात लिखना ही नहीं, समझदारी की बात नहीं है। यदि देशनालब्धि का प्रकरण है तो आत्मा-परमात्मा की बात आनी ही चाहिए। यह विचार कर मैंने रात के दो बजे चलती मशीन रुकवाकर निम्नांकित अंश उसमें जोड़ दिया ह " देह में विराजमान, पर देह से भिन्न एक चेतन तत्त्व है। यद्यपि उस चेतन तत्त्व में मोह-राग-द्वेष की विकारी तरंगे उठती रहती हैं; तथापि वह ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व उनसे भिन्न परमपदार्थ है, जिसके आश्रय से धर्म प्रगट होता है। उस प्रगट होनेवाले धर्म को सम्यग्दर्शन - ज्ञान और चारित्र कहते हैं । सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र दशा अन्तर में प्रगट हो, इसके लिए परमपदार्थ ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुव आत्मतत्त्व की अनुभूति अत्यन्त आवश्यक है। उस अनुभूति को ही आत्मानुभूति कहते हैं। वह आत्मानुभूति जिसे प्रगट हो गई, 'पर' से भिन्न चैतन्य आत्मा का ज्ञान जिसे हो गया; वह शीघ्र ही भव-भ्रमण से छूट जायेगा । 'पर' से भिन्न चैतन्य आत्मा का ज्ञान ही भेदज्ञान है। यह भेदज्ञान
SR No.009470
Book TitleRahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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