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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का में ही सभी का उपयोग लगा हुआ है; परन्तु इसमें परिणामों की मग्नता गुणस्थान अनुसार बढ़ती जाती है। सातवें गुणस्थान में स्वानुभव में जैसी लीनता है, वैसी तीव्र लीनता चौथे गुणस्थान में नहीं है; इसप्रकार निर्विकल्पता दोनों के होने पर भी परिणाम की मग्नता में विशेषता है।
इसप्रकार गुणस्थान अनुसार स्वानुभव की विशेषता जाननी चाहिए। ज्यों-ज्यों गुणस्थान बढ़ता जाये, त्यों-त्यों कषायें घटती जायें और स्वरूप में लीनता बढ़ती जाये। "
यद्यपि अनुभव चौथे गुणस्थान में होता है; तथापि चौथे गुणस्थान में होनेवाले अनुभव में परिणामों की मग्नता उसप्रकार की नहीं होतीं, जैसी पंचमादि गुणस्थानों में होती है। ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों में होनेवाले अनुभव में परिणामों की मग्नता की गहराई निरन्तर बढ़ती ही जाती है। न केवल गहराई, अपितु आगे-आगे मग्नता का काल भी बढ़ता जाता है। और अन्तराल (वियोगकाल) कम होता जाता है ।
यहाँ महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जब अनुभव में विकल्प नहीं होते और ध्येय का परिवर्तन नहीं होता, ज्ञेय का भी परिवर्तन नहीं होता तो फिर शुक्लध्यान के पहले पाये में अर्थसंक्रान्ति, व्यंजनसंक्रान्ति और योगसंक्रान्ति कैसे होती है ?
संक्रान्ति शब्द का अर्थ बदलना होता है। जब सूर्य एक राशि से बदलकर दूसरी राशि में जाता है, तब उसे संक्रान्ति कहते हैं और उस काल को संक्रान्तिकाल कहते हैं। लोक में भी जब विशेष बदलाव का काल चलता है, तब उसे संक्रान्तिकाल कहा जाता है।
सूर्य की राशिपरिवर्तन संबंधी संक्रान्ति प्रत्येक माह की १४वीं तारीख को होती है। वर्ष के आरंभ में १४ जनवरी को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है; अतः उसे मकर संक्रान्ति कहते हैं। वर्षारंभ में होने के कारण लोक में उसे पर्व के रूप में मनाया जाता है।
अर्थ संक्रान्ति, व्यंजन संक्रान्ति और योग संक्रान्ति का स्वरूप २. वही, पृष्ठ ९९
१. अध्यात्म संदेश, पृष्ठ ९८
सातवाँ प्रवचन
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महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र की आचार्य पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में एवं आचार्य अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थराजवार्तिक में इसप्रकार प्रस्तुत किया गया है
“अर्थ ध्येय को कहते हैं। इससे द्रव्य और पर्याय लिये जाते हैं। व्यंजन का अर्थ वचन है तथा काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं। संक्रान्ति का अर्थ परिवर्तन है ।
द्रव्य को छोड़कर पर्याय को प्राप्त होता है और पर्याय को छोड़ द्रव्य को प्राप्त होता है ह्र यह अर्थसंक्रान्ति है ।
एक श्रुतवचन का आलम्बन लेकर दूसरे वचन का आलम्बन लेता है और उसे भी त्याग कर अन्य वचन का आलम्बन लेता है ह्न यह व्यंजनसंक्रान्ति है।
काययोग को छोड़कर दूसरे योग को स्वीकार करता है और दूसरे योग को छोड़कर काययोग को स्वीकार करता है ह्र यह योगसंक्रान्ति है। इसप्रकार के परिवर्तन को वीचार कहते हैं। "
द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों को अर्थ कहते हैं; अतः द्रव्य से पर्याय पर, पर्याय से द्रव्य पर उपयोग जाने को तो अर्थसंक्रान्ति कहते ही हैं, द्रव्य से द्रव्यान्तर और पर्याय से पर्यायान्तर पर उपयोग जाने को भी अर्थसंक्रान्ति ही कहेंगे ।
व्यंजन का अर्थ वचन होने से एक श्रुतवचन से अन्य श्रुतवचन पर उपयोग जाने को व्यंजनसंक्रान्ति कहते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान में आगम वचनों का ज्ञान चलता है, ज्ञान का ज्ञेय बदलता है, ध्यान का ध्येय भी बदलता है।
ज्ञानका ज्ञेय और ध्यान का ध्येय बदलने से ध्यान में, अनुभूति में कोई अन्तर नहीं आता; क्योंकि उक्त स्थिति में भी वीतरागता न केवल कायम रहती है, अपितु निरन्तर बढ़ती रहती है।
१. सर्वार्थसिद्धि व तत्त्वार्थराजवार्तिक, अध्याय ९ सूत्र ४४ २. प्रवचनसार, गाथा ८७