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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का कथन तो अनेक प्रकार से हैं, वह सर्व आगम-अध्यात्म शास्त्रों से जैसे विरोध न हो विवक्षाभेद से कथन जानना।"
उक्त प्रश्नोत्तर का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"इसप्रकार आगम की सामान्य शैली के अनुसार इस मति-श्रुत को परोक्ष कहते हैं और अध्यात्म की खास शैली में उसे प्रत्यक्ष भी कहा जाता है। आगम-अध्यात्म शास्त्रों में भिन्न-भिन्न विवक्षा से अनेक प्रकार के कथन आते हैं, उनकी विवक्षा समझकर, उनमें परस्पर विरोध न आवे और अपना हित होह्र इसप्रकार उनका आशय समझना चाहिए।
किसी जगह एक बात पढ़ी हो, वही सब जगह पकड़ रखे और अन्य जगह अन्य विवक्षा से कोई दूसरा कथन आवे, तब वहाँ उसका आशय न समझें तो दोनों का मेल बैठाना मुश्किल हो जायेगा। अत: किस जगह कौन सी विवक्षा है ह यह समझना चाहिए। ___मन के अवलम्बन की अपेक्षा से मति-श्रुतज्ञान को परोक्ष कहा है; परन्तु मन का अवलम्बन हो, तब आत्मा को जान ही न सकें ह्न ऐसा नहीं है; क्योंकि इस ज्ञान में स्वानुभव के समय में बुद्धिपूर्वक मन का अवलम्बन छूट गया है, इतने अंश में इसमें प्रत्यक्षपना है।
जो सूक्ष्म-अबुद्धिपूर्वक विकल्प हैं, उनमें मन का अवलम्बन है; परन्तु आत्मा का जो स्वसंवेदन है, उसमें तो मन का अवलम्बन छूट ही गया है। केवलज्ञान जैसा प्रत्यक्षपना इसमें भले न हो, परन्तु स्वानुभव प्रत्यक्षपना अवश्य है।"
अभी तक आत्मा को अनेक आगम प्रमाणों और युक्तियों से परोक्ष ही सिद्ध करते आ रहे हैं; अत: शिष्य के चित्त में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि जब आत्मा अनुभव में परोक्षरूप से ही ज्ञात होता है तो फिर आगम में उसे प्रत्यक्ष क्यों कहा, अनुभव प्रत्यक्ष क्यों कहा ? १. रहस्यपूर्णचिट्ठी : मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३४६-३४७ २. अध्यात्म संदेश, पृष्ठ ९४-९५
सातवाँ प्रवचन
उक्त प्रश्न के उत्तर में पण्डित टोडरमलजी एक बार फिर दुहराते हैं कि अनुभव में तो आत्मा परोक्ष ही है। उसके बाद उसे परमागम में प्रत्यक्ष कहने की अपेक्षा स्पष्ट करते हैं, प्रत्यक्ष कहने का कारण बताते हैं।
कहते हैं कि आत्मा नहीं, अपितु आत्मस्वरूप में परिणाम मग्न होने से जो आनन्द का वेदन होता है, वह प्रत्यक्ष है; क्योंकि जो स्वानुभव का स्वाद आया,आनन्द की अनुभूति हई; वह शास्त्रों में पढ़-पढ़करया गुरु मुख से सुन-सुनकर नहीं हुई है; अपितु उसने उस आनन्द का साक्षात् वेदन किया है, उस आनन्द को भोगा है।
वे अपनी बात को स्पष्ट करते हुए मिश्री खानेवाले अन्धे व्यक्ति का उदाहरण देते हैं। जन्मान्ध व्यक्ति ने मिश्री का रूप-रंग और आकारप्रकार को आँखवालों से सुनकर जाना है; पर उसका स्वाद, उसके रस का ज्ञान-आनन्द किसी के कहने मात्र से नहीं जाना है; अपितु स्वयं चखा है। उसे चख कर मात्र जाना ही नहीं है, अपितु उसका आनन्द लिया है, वेदन किया है, भोगा है।
सुख-दुःख की अनुभूति के साथ जानने को वेदन कहते हैं।
अनुभव को प्रत्यक्ष कहने का एक कारण तो यह है और दूसरा कारण बताते हुए पण्डितजी कहते हैं कि लगभग प्रत्यक्ष की भाँति विशद होने से, स्पष्ट होने से, निर्मल ज्ञान होने से उसे प्रत्यक्ष कहने का व्यवहार है।
इसप्रकार के अनेक प्रयोग लोक में पाये जाते हैं। जैसे हम कहते हैं कि आज मैंने तुम्हें स्वप्न में प्रत्यक्ष देखा । तुम मंदिर में दर्शन कर रहे थे और मैं सामने आया। न केवल तुम्हें देखा, अपितु तुमसे बात भी की थी।
सामनेवाला कहता है कि मैं तो मंदिर गया ही नहीं तो तुमने मुझे मंदिर में प्रत्यक्ष कैसे देखा?
तब वह कहता है कि मंदिर में मैं भी कहाँ गया था। मैं भी घर में ही सो रहा था।
"ऐसे में तू मुझे मंदिर में कैसे देख सकता है ?" "क्यों नहीं, क्योंकि मैंने तुझे स्वप्न में प्रत्यक्ष देखा था।"