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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
(हरिगीत) चैतन्य में ही मग्न हो, चैतन्य दरशाते अहो। निर्दोष श्री सर्वज्ञ प्रभुवर, जगत्साक्षी हो विभो ।। सच्चे प्रणेता धर्म के, शिवमार्ग प्रकटाया प्रभो। कल्याण वांछक भविजनों, के आप ही आदर्श हो।। शिवमार्ग पाया आप से, भवि पा रहे अरु पायेंगे। स्वाराधना से आप सम ही, हुए हो रहे होयेंगे ।। तव दिव्यध्वनि में दिव्य-आत्मिक, भाव उद्घोषित हुए। गणधर गुरु आम्नाय में, शुभ शास्त्र तब निर्मित हुए।। निर्ग्रन्थ गुरु के ग्रन्थ ये, नित प्रेरणायें दे रहे। निजभाव अरु परभाव का, शुभ भेदज्ञान जगा रहे।। इस दुषम भीषण काल में, जिनदेव का जब हो विरह। तब मात सम उपकार करते, शास्त्र ही आधार हैं।। जग से उदास रहें स्वयं में, वास जो नित ही करें। स्वानुभव मय सहज जीवन, मूल गुण परिपूर्ण हैं।। नाम लेते ही जिन्हों का, हर्ष मय रोमांच हो । संसार-भोगों की व्यथा, मिटती परम आनन्द हो। परभाव सब निस्सार दिखते, मात्र दर्शन ही किए। निजभाव की महिमा जगे, जिनके सहज उपदेश से।। उन देव-शास्त्र-गुरु प्रति, आता सहज बहुमान है। आराध्य यद्यपि एक, ज्ञायकभाव निश्चय ज्ञान है।। प्रभु! अर्चना के काल में भी, भावना ये ही रहे। धन्य होगी वह घड़ी, जब परिणति निज में रहे।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा
(दोहा) अहो कहाँ तक मैं कहूँ, महिमा अपरम्पार। निज महिमा में मगन हो, पाऊँपद अविकार।।
( इति पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् )