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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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अर्हत् वचनों से प्रसूत गणधर विरचित हैं द्वादश अंग। विविध अनेक अर्थ गर्भित हैं धारें सुधी मुनीश्वर गण।। अग्रद्वार शिवपुर का, मिलता व्रताचरण फल, ज्ञेय-प्रदीप। त्रिभुवन सारभूत श्रुत को में नितप्रति वन्, भक्ति सहित ।।1।।
जिनध्वनि से निसृत वचनों को इन्द्रभूति आदिक गणधरसुनकर धारण करें प्रकाशित, द्वादशांग को करूँ नमन ।।2।। कोटि एक सौ बारह एवं लाख तिरासी अट्ठावन। सहस पाँच पद भूषित अंग प्रविष्ट ज्ञान को करूँ नमन ।। ।।
अंग बाह्य श्रुत में पद हैं कुल आठ करोड़ और इक लाख। आठ हजार एक सौ पचहत्तर पद को नित नमता माथ ।।4।।
अर्हन्तों से कहा गया जो गणधर देवों ने गूंथा। भक्ति सहित श्रुतज्ञान महोदधि को मैं नमस्कार करता।।5 ।।
अंचलिका हे प्रभु श्रुत भक्ति करके अब मैंने कायोत्सर्ग किया। इसमें लगे हुए दोषों का अब मैं आलोचन करता।। अङ्ग उपाङ्ग प्रकीर्णक प्राभृत अरु परिकर्म प्रथम अनुयोग। सूत्र पूर्वगत तथा चूलिका स्तुति धर्मकथामय बोध ।। अर्चन पूजन वन्दन नमन करूँ होवें दु:ख कर्मक्षय। बोधि लाभ हो सुगति गमन हो जिनगुण संपत्ति हो अक्षय।।