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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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प्रभो आपकी अनुपम परिणति.....
प्रभो ! आपकी अनुपम परिणति, दीक्षा को जो किया विचार । जगत जनों को भी मंगलमय, नमन करें हम बारम्बार ।। भव भोगों को नश्वर जाना, शुद्धातम जाना सुखकार । मोह शत्रु का नाश करेंगे, प्रगटेगा सुख अपरम्पार ।। १ ।। पहले से ही प्रभुवर तुमने, मिथ्यातम का किया विनाश । हे दीक्षाग्राहक ! वैरागी, चरितमोह का करो परास्त ।। रत्नत्रय आभूषण धारे, जंगल में यह मंगल कार्य । रागी जन को है अति दुष्कर किन्तु आपको है स्वीकार ।। २ ।। धन्य धन्य हे मुक्ति पथिक ! तुम सहज सौम्य मुद्राधारी । लक्ष्योन्मुख है ज्ञान आपका, चरित्र पथ के अनुगामी ।। बारह जय करके दिग्विजयी, सुख वांछक हो हे जगदीश || ३ || इन्द्रिय अरु प्राणी संयम, धारण करके हो आदरणीय । शुक्ल ध्यान में कर्मेन्धन को, नष्ट करोगे केवलज्ञान ।। जग को मुक्तिमार्ग बताओ, हे त्रिभुवन के गुरु महान ।। ४ ।।
ऐसे साधु सुगुरु.....
ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं ।। टेक ॥।
आप त अरु पर को तारैं, निष्पृही निर्मल हैं ।। ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं ।। १ ।।
तिल तुष मात्र संग नहिं जिनके, ज्ञान-ध्यान गुण बल हैं ।। ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं ।।२।।
शांत दिगम्बर मुद्रा जिनकी, मन्दर तुल्य अचल हैं ।। ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं ।।३।। 'भागचन्द' तिनको नित चाहें, ज्यों कमलनि को अलि हैं ।। ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं ।।४।।
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