________________
प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
185
भविजन तुम-सम निजरूप, ध्याकर तुम-सम होते। ।। चैतन्य पिण्ड शिव-भूप, होकर सब दुख खोते॥ चैतन्यराज सुखखान, दुख दूर करो मेरे ।।४।।
---
रोम-रोम पुलकित हो जाए.... रोम रोम पुलकित हो जाय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।।टेक।। ज्ञानानन्द कलियाँखिल जायँ, जबजिनवर केदर्शन पाय ।। जिन-मन्दिर में श्री जिनराज, तन-मन्दिर में चेतनराज। तन-चेतन को भिन्न पिछान, जीवन सफल हुआ है आज।। वीतराग सर्वज्ञ-देव प्रभु, आये हम तेरे दरबार । तेरे दर्शन से निज दर्शन, पाकर होवें भव से पार ।। मोह-महातम तुरत विलाय, जब जिनवर के दर्शन पाय ॥१॥ दर्शन-ज्ञान अनन्त प्रभु का, बल अनन्त आनन्द अपार । गुण अनन्त से शोभित हैं प्रभु, महिमा जग में अपरम्पार ।। शुद्धातम की महिमा आय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।।२।। लोकालोक झलकते जिसमें, ऐसा प्रभु का केवलज्ञान। लीन रहें निज शुद्धातम में, प्रतिक्षण हो आनन्द महान ।। ज्ञायक पर दृष्टि जम जाय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।।३।। प्रभुकी अन्तर्मुख-मुद्रा लखि, परिणति में प्रकटेसमभाव । क्षणभर में होंप्राप्त विलय को, पर-आश्रित संपूर्ण विभाव।। रत्नत्रय-निधियाँ प्रकटाय, जब जिनवर के दर्शन पाय॥४।।
जिनवर का उपकार अहो, कुन्दामृत अरु दिव्यध्वनि का। दिव्यध्वनि के मर्मोद्घाटक, गुरु कहान पथ-दर्शक का।।